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Jyotish Prashna Kundali Vichar (ज्योतिष प्रश्न कुंडली विचार)

400.00

Author Dr. Surkant Jha
Publisher Rupesh Thakur Prasad Prakashan
Language Hindi
Edition 1st edition, 2009
ISBN 243-542-2392545
Pages 456
Cover Hard Cover
Size 14 x 3 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0056
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Description

ज्योतिष प्रश्न कुंडली विचार (Jyotish Prashna Kundali Vichar) भारतीय मान्यता के अनुसार ‘जो कुछ वेद में है, वही अन्यत्र भी है, जो वहाँ नहीं, वह अन्यत्र भी नहीं’। यथा-‘यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तद् क्वचित्’ मनुस्मृति के अनुसार मनुष्य जीवन के कर्म का आधार वेद है-वेदोऽखिलः कर्ममूलम्। वह वेद ‘अणोरणीयान्महतोमहीयान्’ स्वरूप परमात्मा का निःश्वासभूत है, जो प्राणियों को आधिभौतिक, आध्यात्मिक व आधिदैविक त्रिविध दुखों से उबारने वाला तथा उनके पुरुषार्थ चतुष्टय (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) की प्राप्ति का अतिशय सुन्दर पथप्रदर्शक है; उस वेद में संसार के समस्त विज्ञान भी सन्निहित हैं। उसी वेद के प्रयोजन को सिद्ध करने वाला षड्वेदाङ्गशास्त्र हैं, जिनमें सन्निहित व समुपासित ज्ञान वेद के साथ ही या विराट वेदपुरुष के रूप में हमारे समक्ष प्रकट हुये और जिन्हें महर्षियों ने अपनी अतीन्द्रिय शक्ति से लोक कल्याणार्थ प्रवर्त्तित किये, उनके नाम हैं- १. व्याकरण, २. ज्यौतिष, ३. निरुक्त, ४. कल्प, ५. शिक्षा और ६. छन्द।

भारतीय त्रिस्कन्धात्मक ज्यौतिषशास्त्र की उपस्थिति को ऋग्वेद काल से ही अनुभव किया जा सकता है; लेकिन इस कथन के साथ, इस सत्य को भी स्वीकार करना चाहिए कि वेद की ऋचाओं में उत्कृष्ट ज्यौतिष ज्ञान का केवल तत्समकालीन व्यावहारिक रूप समुपलब्ध होता है, उससे ज्यौतिषशास्त्र के तत्समकालीन उत्कृष्टतम ज्ञान का सूक्ष्म प्रत्यक्षीकरण होता है। लेकिन ब्राह्मणों में अत्यन्त सूक्ष्म चिन्तन भी सुलभता से अनभव किया जा सकता है। उनका अध्ययन कर कोई भी चकित हुए विना नहीं रह सकता, क्योंकि उनमें उत्कृष्टतम सूक्ष्म ज्यौतिष ज्ञान, अपना स्वरूप विस्तारित कर अत्यन्त सामान्य रूप में सम्यक्तया दिखाई देता है।

इस प्रकार यह तो माना ही जा सकता है कि वेद की ऋचाओं का अध्ययन, मनन, चिन्तन, याज्ञिकमीमांसा, प्रक्रियानिदर्शन आदि जहाँ भी हुआ है, वहाँ ज्योतिष तत्त्वज्ञान की परिचर्चा भी अवश्य हुई है। जहाँ वेदों में ज्योतिष तत्त्वों की उपस्थिति दर्श, पौर्णमास, वासर, नक्षत्र, मुहूर्त, पंक्ष, मास (सावन, चान्द्र- नाक्षत्र), वर्ष (सावन-चान्द्र-नाक्षत्र-सौर), ऋतु, अयन आदि के रूप में प्रयोजन वश ही रहा है। इस आधार पर इन प्रायोजनिक विषयों को प्रधान और आदि ज्ञान कहना अनुचित नहीं होगा और यह कहना भी उचित ही होगा कि ज्यौतिषशास्त्रीय विषयों का विचार ऋग्वेद काल से ही हुआ है।

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