Mundakopnishad (मुण्डकोपनिषद)
₹25.00
Author | - |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | - |
ISBN | - |
Pages | 110 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0162 |
Other | Code - 513 |
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CompareDescription
मुण्डकोपनिषद (Mundakopnishad) मुण्डकोपनिषद् अथर्ववेदके मन्त्रभागके अन्तर्गत है। इसमें तीन मुण्डक हैं और एक-एक मुण्डकके दो-दो खण्ड हैं। ग्रन्थके आरम्भमें ग्रन्थोक्त विद्याकी आचार्यपरम्परा दी गयी है। वहाँ बतलाया है कि यह विद्या ब्रह्माजीसे अथर्वाको प्राप्त हुई। और अथर्वासे क्रमशः अंगी और भारद्वाजके द्वारा अंगिराको प्राप्त हुई। उन अंगिरा मुनिके पास महागृहस्थ शौनकने विधिवत् आकर पूछा कि ‘भगवन्! ऐसी कौन-सी वस्तु है जिस एकके जान लेनेपर सब कुछ जान लिया जाता है?’ महर्षि शौनकका यह प्रश्न प्राणिमात्रके लिये बड़ा कुतूहलजनक है, क्योंकि सभी जीव अधिक-से-अधिक वस्तुओंका ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।
इसके उत्तरमें महर्षि अंगिराने परा और अपरा नामक दो विद्याओंका निरूपण किया है। जिसके द्वारा ऐहिक और आमुष्मिक अनात्म पदार्थोंका ज्ञान होता है उसे अपरा विद्या कहा है तथा जिससे अखण्ड, अविनाशी एवं निष्प्रपंच परमार्थतत्त्वका बोध होता है उसे परा विद्या कहा गया है। सारा संसार अपरा विद्याका विषय है तथा संसारी पुरुषोंकी प्रवृत्ति भी उसीकी ओर है। उसीके द्वारा ऐसे किसी एक ही अखण्ड तत्त्वका ज्ञान नहीं हो सकता जो सम्पूर्ण ज्ञानोंका अधिष्ठान हो, क्योंकि उसके विषयभूत जितने पदार्थ हैं वे सब के सब परिच्छिन्न ही हैं। अपरा विद्या वस्तुतः अविद्या ही है; व्यवहारमें उपयोगी होनेके कारण ही उसे विद्या कहा जाता है। अखण्ड और अव्यय तत्त्वके जिज्ञासुके लिये वह त्याज्य ही है। इसीलिये आचार्य अंगिराने यहाँ उसका उल्लेख किया है।
इस प्रकार विद्याके दो भेद कर फिर सम्पूर्ण ग्रन्थमें उन्हींका सविस्तर वर्णन किया गया है। ग्रन्थका पूर्वार्ध प्रधानतया अपरा विद्याका निरूपण करता है और उत्तरार्धमें मुख्यतया परा विद्या और उसकी प्राप्तिके साधनोंका विवेचन है। इस उपनिषद्की वर्णनशैली बड़ी ही उदात्त एवं हृदयहारिणी है, जिससे स्वभावतः ही जिज्ञासुओंका हृदय इसकी ओर आकर्षित हो जाता है।
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