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Jyotish Ratnakar (ज्योतिष रत्नाकर)

476.00

Author Devkinandan Singh
Publisher Motilal Banarasi Das
Language Hindi
Edition 10th edition, 2021
ISBN 978-81-208-2314-3
Pages 1098
Cover Paper Back
Size 14 x 5 x 21 (l x w x h)
Weight
Item Code MLBD0078
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Description

ज्योतिष रत्नाकर (Jyotish Ratnakar) प्राचीन विद्वानों ने ज्योतिष को साधारणतः दो भागों में बांटा है: सिद्धान्त-ज्योतिष और फलित-ज्योतिष । जिस भाग के द्वारा ग्रह, नक्षत्र आदि की गति एवं संस्थान आदि प्रकृति का निश्चय किया जाता है उसे सिद्धान्त-ज्योतिष कहते हैं। जिस भाग के द्वारा ग्रह, नक्षत्र आदि की गति को देखकर प्राणियों की अवस्था और शुभ अशुभ का निर्णय किया जाता है उसे फलित ज्योतिष कहते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में सिद्धान्त और फलित दोनों का समावेश मिलता है। ग्रन्थ के दो भाग हैं जो कि पाठक की सुविधा के लिये एक ही जिल्द में रखे गये हैं। प्रथम भाग में जन्म पत्न का पूरा प्रावधान है; द्वितीय भाग में कुण्डलियों के उदाहरण से फल दर्शाया गया है। सिद्धान्त और फलित का समन्वय करके दोनों भाग इतरेतर पूरक हो जाते हैं।

ज्योतिष एक महत्त्वपूर्ण उपयोगी विषय है। वेद के छः अंगों में ज्योतिष चतुर्व अंग है जिसे नेत्र कहा गया है; अन्य अंगों में शिक्षा नासिका है, व्याकरण मुख है, निरुक्त कान है, कल्प हाथ है, छन्द चरण है। यह विद्या भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की कृति वेदाङ्गज्योतिष से इसकी प्राचीनता का पर्याप्त परिचय मिलता है। वैदिक कालीन महर्षियों को तारामण्डल की गतिविधियों का पूर्ण ज्ञान था इसमें सन्देह नहीं है। ब्राह्मण ग्रन्थों में ज्योतिष सम्बन्धी प्रसङ्ग बिखरे पड़े हैं। साम ब्राह्मण के छान्दोग्य- भाग (प्रपाठक ७, खण्ड १ प्रवाक् २) में नारद-सनत्कुमार संवाद है जिसमें चौदह विद्याओं का उल्लेख है। इनमें १३वीं नक्षत्र विद्या है। सूर्य-सिद्धान्त सिद्धान्तज्योतिष का आर्ष ग्रन्य है। इसमें सिद्धान्त-ज्योतिष की प्रायः सभी बातें पाई जाती हैं। तैत्तिरीय ब्राह्मण (३.४.६) में सूर्य, पृथ्वी, दिन तथा रात्रि के सम्बन्ध में जो चर्चा मिलती है उससे ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में भी भारत- वासी ग्रहों और ताराओं के भेद को भली-भांति जानते थे।

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