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Saraswati Tantram (सरस्वती तन्त्रम)

30.00

Author S.N. Khandelwal
Publisher Bharatiya Vidya Prakashan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2010
ISBN -
Pages 25
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0388
Other मूल संस्कृत एवं भाषानुवाद

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Description

सरस्वती तन्त्रम (Saraswati Tantram) सरस्वती तन्त्र मूलतः स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं है। यह किसी बृहद् तंत्रग्रन्थ का अंश प्रतीत होता है। इसकी प्रतियाँ एशियाटिक सोसायटी बंगाल में ६००७ तथा ६०६, राजेन्द्र लाल मित्र की संस्कृत पुस्तिका के विवरण संख्या ४४७ तथा २६१ और बड़ौदा पुस्तकालय में क्रमसंख्या २६१ के रूप में उपलब्ध है। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की ग्रन्थ संख्या २६१३८ के रूप में भी इसका अंकन हैं। मैमन सिंह जिला के पं. मथुरानाथ तथा पावना के पं. क्षितीशचन्द्र भट्टाचार्य के संग्रह में भी इसकी पाण्डुलिपि रक्षित है।

यह ग्रन्थ शिवपार्वती संवादात्मक है। इसमें छः पटल है। जैसा कि इसका नाम है, इसमें सरस्वती उपासना का अलग से कोई भी विवरण नहीं मिलता। इसमें मूलाधार आदि चक्रों में देवध्यान, निर्वाण मुक्ति, कालिका आदि देवियों के मन्त्र, योनिमुद्रा, मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य, कुल्लुका, महासेतु, प्राणयोग, शोधन आदि साधक के लिये अत्यन्त हितकारी साधनांग का समावेश है। किसी भी तन्त्र मार्ग से साधना करने पर उक्त साधनयोग का ज्ञान तथा सम्यक् अनुशीलन आवश्यक है। इस प्रकार से यह ग्रन्थ समस्त शाक्ततन्त्रों की साधना के लिये एक दिशानिर्देश का बोधन कराता है। साधनाङ्ग के ज्ञान के अभाव में सरस्वती विद्या कदापि सिद्ध नहीं हो सकती।

इस ग्रन्थ का नाम सरस्वती तन्त्र रखा गया है। वास्तव में भगवती सरस्वती कुलकुण्डलिनि का उर्ध्वमुखी रूप हैं। महाकाली, महालक्ष्मी तथा महासरस्वती रूप से सप्तशती में देवी के जिन रूपत्रय का वर्णन है, वह वास्तव में कुलकुण्डलिनि ही के तीन रूप हैं। नाद-बिन्दु तथा कला से साधक सामान्यतः परिचित हैं। कला का पर्यवसान ही महाकालिका है। नाद का पर्यवसान ही महासरस्वती का रूप है और विन्दु का परम-चरम में पर्यवसान ही महालक्ष्मी का रूप है। इन्हीं तीनों रूपों का उत्कर्ष ही सप्तशती में वर्णित है। महासरस्वती ही इस स्थूल देह में स्वर- व्यंजन रूपा हो जाती है। सूक्ष्मदेह में वही नाद हैं और वह नाद अन्त में प्रणवरूपता को प्राप्त करके महासरस्वती में लीन हो जाता है। यहीं मन्त्र चैतन्य तथा वास्तविक मन्त्रार्थ स्थिति की प्राप्ति है। जहाँ कहीं भी मन्त्रोपासना या जपत्रक्रिया की साधना की जाती है, वहाँ प्रकारान्तर से महासरस्वती की ही साधना होती है, चाहे वहां किसी भी देवता की साधना क्यों नहीं की जाय। नाद का पर्यवसान होने के अनन्तर ही महालक्ष्मी की प्रकृत साधना विन्दुलीनता के रूप में सम्भव है।

काली कलनात्मिका है। कलन मन का कृत्य है। मन से ही काल की कलना होती है। मन के विलीन होते ही काल स्तब्ध हो जाता है, खोजने पर भी उसका सन्धान नहीं मिलता। काली की उपासना से मन का यह कलन व्यापार समाप्त हो जाता है और अब भूत-भविष्य-वर्तमान रूप खण्डकाल के विलीन होने पर नित्य वर्तमान रूप अखण्ड काल का साक्षात्कार होने लगता है। इसी स्थिति में यथार्थ प्रकृत नाद का साक्षात्कार होता है। यह प्रकृत नाद श्रुतिगोचर होने वाला योगीगण द्वारा अनुभूत नाद कदापि नहीं है। प्रकृतनाद की ही धारा समस्त मातृकाओं का एकीकरण करते हुये महासरस्वती का साक्षात्कार कराती है।

इस तंत्र के प्रारम्भ में ही मातृकाओं की स्थिति का वर्णन करते हुये उन्हें क्रमशः निम्नस्थ चक्र से उर्ध्वस्थ चक्र में ले जाने का क्रम बतलाया गया है। इस प्रकार से निम्नस्थ चक्र की मातृका अपने से उर्ध्व चक्र में विलीन हो जाती है। ऐसा पुनः होता है अर्थात् निम्नस्थ चक्र की मातृका जिस चक्र में प्रविलीन हुई थी, अब वहाँ से उस चक्र की मातृका अपने से उर्ध्व चक्र में जाकर समाहित हो जाती है। आज्ञाचक्र पर्यन्त ऐसा उत्तरोत्तर होता रहता है। इस प्रक्रिया में सुषुम्ना ही सूत्रात्मा है। वह समस्त चक्रों को प्राणरस से युक्त करती ‘हंसः’ का साक्षात् कराती है। यही है वास्तविक सरस्वती उपासना अथवा सरस्वती तन्त्र। यह प्राणरस ‘हंसः’ ही अपनी उनीत स्थिति में आत्मरस ‘सोऽहम्’ में समाहित हो जाता है। यही सरस्वती तन्त्र का सार रहस्य है।

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