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Laghu Siddhant Kaumudi (श्रीवरदराजविरचित लघुसिद्धान्तकौमुदी)

382.00

Author Shri Dharanand Shastri
Publisher Motilal Banarasi Das
Language Sanskrit & Hindi Translate
Edition 2024
ISBN 978-81-208-2214-6
Pages 1084
Cover Paper Back
Size 12 x 4 x 18 (l x w x h)
Weight
Item Code MLBD0051
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Description

लघुसिद्धान्तकौमुदी (Laghu Siddhant Kaumudi) यों तो सभी वाङ्मय माननीय हैं। सभी के अपने विशिष्ट गुण हैं। सभी ने अपने उपकार से मानव-समाज को ही नहीं किन्तु अन्य प्राणियों को भी स्वस्थ, सुखी तथा अन्धकार से न्यूनाधिक दूर उठाया है। पर संस्कृत की ओर ध्यान जाने पर तो बरबस मन-मयूर प्रफुल्ल हो नृत्य करने लगता है। ऐसी भावना जागरित हो उठती है कि मानो आनन्द-सरिता में प्रवाहित हो रहा हूँ। यह निश्चय प्रादुर्भूत होता है कि उत्कृष्ट मनुष्य जीवन का सर्वस्व प्राप्तव्य अब यहीं मिलेगा, यह संकेत मिलता है कि अब इधर-उधर भटकने की आवश्यकता नहीं, यहाँ तो शाश्वत शान्ति भी पाई जा सकती है। सचमुच ‘अध्यात्मविद्या विद्यानाम्’ इस स्तुति का सत्य अनुभव इसी के अन्तस्तल में सुनिहित है। दूसरे तो प्रपञ्च के झंझावात में जीवन को छोड़कर न जाने किधर लिये जा रहे हैं। यह मार्ग भी बुद्ध के मत में सतत नीचे गिरनेवाली भूमि के आकाश के समान अनन्त है।

अस्तु, उस वाङ्मय का सुन्दर गोपुर महर्षि पाणिनि का, जो तक्ष- शिला पंचनद के रत्न थे, तपःफल व्याकरण है। कठिन और दुरूह शब्दस्तोम में प्रवेश करने की यह अनुपम कुञ्जिका है। उसके वस्तुतः अधिगत होने पर संस्कृत के शब्द विश्व के ऊपर सदातन अप्रकंपनीय वह आधिपत्य स्थापित हो जाता है जो कभी भगाया नहीं जा सकता। उसकी प्रथम पुस्तक लघुकौमुदी है। उसको विद्वन्मान्य वरदराज ने, जो महापण्डित भट्टोजिदीक्षित के शिष्य थे, बनाया है। उनका एक व्याकरण ग्रंथ मध्यकौमुदी भी है। लघुकौमुदी का परिमाण ३२ बत्तीस अक्षर के छन्द अनुष्टुप् की संख्या से १५०० है। अमरकोश और रघुवंश भी संख्या में इतने ही हैं। यह आभाणक सत्य है कि तीन पन्द्रहे पण्डित। ये तीनों ग्रन्थ अच्छे ढंग से सुचारु रूप से बालक को प्रथम अवस्था में पढ़ा दिये जायं तो वह अवश्य अच्छा व्युत्पन्न हो जायगा, उसका सर्वत्र अविहत संचार होने लगेगा। आजकल पेरीनाओं की अव्यवस्था से जो दुर्बोधता जीवनव्यापिनी होकर विद्वत्समाज का कूलंकष हो रही है, वह मिट जायगी। अभिप्राय यह कि लघुकौमुदी व्याकरण की अत्युत्तम पुस्तक है। अपेक्षित सभी विषयों का इसमें सुन्दर सन्निवेश है। यद्यपि अध्ययन के सौकर्य के लिये सिद्धान्तकौमुदी में अष्टाध्यायी का क्रम अधिक अंशों में विद्वान् निर्माता ने परिवर्त्तित किया, परन्तु इस ‘लघुकौमुदी’ में सिद्धान्तकौमुदी के प्रकरणों के क्रम में परिवर्तन करके असुविधायें और भी दूर की गई हैं। सुबन्त, तिङन्त और कृदन्त के अनन्तर कारक, समास, तद्धित तथा स्त्रीप्रत्यय को रखना अत्यन्त उपयुक्त है। इनमें पूर्व प्रकरणों का ज्ञान अत्यन्त अपेक्षणीय है। अतः इसकी महनीयता और वृद्धिंगत हुई है।

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