Abhigyan Shakuntalam (अभिज्ञानशाकुन्तलम्)
₹212.00
Author | Dr. Acharya Dhurandhar Pandey |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 3rd edition, 2021 |
ISBN | - |
Pages | 582 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0023 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अभिज्ञानशाकुन्तलम् (Abhigyan Shakuntalam) अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कथा का मूल आधार महाभारत की कथा ही है; क्योंकि महाभारत की कथा नीरस तथा सीधी-सादी है। दुष्यन्त एवं शकुन्तला की कथा पद्मपुराण में भी है। पद्मपुराण की कथा एवं अभिज्ञानशाकुन्तल की कथा में अधिक साम्य है। पद्मपुराण की कथा के पात्र भी प्रायः वे ही हैं, जो शाकुन्तल के हैं। महाभारत के आदिपर्व अध्याय ७०-७४ तक लगभग ३०० श्लोक में निबद्ध कथा निम्नवत् है-एक दिन पुरुवंशी राजा दुष्यन्त अपनी सेना, अमात्य और पुरोहित इत्यादि के साथ शिकार खेलने के लिए चल पड़ते हैं। कुछ काल तक शिकार खेलने के पश्चात् वे महर्षि कण्व के आश्रम में पहुँचते हैं। उस समय कण्व के आश्रम में उनकी धर्मसुता शकुन्तला अभ्यागतों के स्वागतार्थ नियुक्त थी। महर्षि कण्व फल लाने के निमित्त बाहर गये हुए थे। राजा को आश्रम में पाकर शकुन्तला आश्रम की व्यवस्थानुसार राजा का स्वागत करती है। शकुन्तला को देखकर राजा के मन में विकार उत्पन्न होता है। वह शकुन्तला का परिचय जानना चाहता है।
शकुन्तला अपना सम्पूर्ण जन्मवृत्तान्त कह देती है। यह क्षत्रिय कन्या है तो राजा उससे अपनी पत्नी होने की विनती करता है। शकुन्तला कहती है-“मेरे बाबा फल लाने के लिए बाहर गये हैं। वे क्षणभर में ही आवेंगे और आपको वे मुझे अर्पण कर देंगे।” परन्तु राजा कहता है कि गान्धर्व विवाह क्षत्रिय के लिए विहित है। तू अपना दान करने के लिए स्वतः समर्थ है। राजा शकुन्तला के शर्त को “मेरा पुत्र ही तुम्हारे सिंहासन का उत्तराधिकारी होगा।” स्वीकार कर लेता है। पुनः दोनों गान्धर्व-विधि से परिणय सूत्र में आबद्ध होते हैं। इसके पश्चात् राजा ने कुछ समय तक निवास किया। पुनः शकुन्तला को ले जाने का वचन देकर अपनी राजधानी वापस लौट आता है। कालक्रमेण ऋषि अपने तपोबल से दुष्यन्त व शकुन्तला सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त को जान लेते हैं। कालान्तर में शकुन्तला आश्रम में पुत्र को जन्म देती है। इस बालक का जातादि कर्म संस्कार ऋषि कण्व के द्वारा सम्पन्न होता है। यह बालक वन के हिंसक प्राणियों के साथ नानाविध क्रीड़ा करता है। जिससे आश्रमवासी उसे सर्वदमन कहकर पुकारने लगते हैं।
अथ महर्षि कण्व पुत्र-सहित शकुन्तला को अपने आश्रम के शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भेजते हैं। यहाँ पहुँचकर शकुन्तला राजा से प्रार्थना करती है कि आप पूर्व वृत्तान्त को याद करें व मुझे व अपने पुत्र को स्वीकार करें। राजा उत्तर देता है “तुम्हारे साथ विवाह का मुझे कोई स्मरण नहीं है। यह पुत्र मेरा नहीं है। तुम्हारा जहाँ जी चाहे, जाओ।” वह पुनः विविध भाँति उसे अनुकूल करना चाहती है; किन्तु राजा के अस्वीकार करने पर वह कहती है कि “अपने इसको स्वीकार नहीं किया तो भी यह मेरा पुत्र सम्पूर्ण पृथ्वी को पदाक्रान्त करेगा।” ऐसा कहकर वह पुल के साथ जाने लगती है। उसी समय आकाशवाणी हुई “दुष्यन्त। यह तेरा ही पुत्र है तथा राहुलला तेरी भार्या है। इनको स्वीकार कर।” इसके बाद राजा शकुन्तला को अपने महारानी के पद पर प्रतिष्ठापित करता है तथा सर्वदमन को ‘भरत’ ऐसा नामकरण कर उसे युवराज द प्रदान करता है।
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