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Advaita Vedanta Me Mayavad (अद्वैत वेदान्त में मायावाद)

Original price was: ₹695.00.Current price is: ₹625.00.

Author Shashi Kant Pandey
Publisher Vidyanidhi Prakashan, Delhi
Language Hindi
Edition 2006
ISBN 81-86700552
Pages 471
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code VN0034
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Description

अद्वैत वेदान्त में मायावाद (Advaita Vedanta Me Mayavad) मायावाद अद्वैत वेदान्त का कोई स्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं है, अपितु वह अद्वैतवाद का एक अंग तत्व ही है। वस्तुत सिद्धान्त तो अद्वैतवाद है, जिसका मायावाद एक उपांग है। किन्तु वह माया कैसा तत्त्व है, इसकी स्पष्ट परिचिति अत्यन्त दुरूह है। आचार्य शङ्कर ने जिस अर्थ में माया शब्द का ग्रहण किया है, ठीक उसी अर्थ को उनके अनुयायी अदैूत वेदान्ती नहीं मानते हैं।

मायावाद का सिद्धान्त शाङ्कर वेदान्त की आधारशिला है। अद्वैत वेदान्त के आधारभूत सिद्धान्तों के सम्यक् आकलन के निमित्त मायावाद के सिद्धान्त का विश्लेषणात्मक प्रतिपादन अनिवार्य है। मायावाद जैसे दुरूह और जटिल विषय पर लेखनी चलाना दुष्कर ही है, परन्तु फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से इस सिद्धान्त को सुधीजनों के साथ साथ आम लोगों तक के लिए ग्राह्य बनाने का प्रयत्न किया गया है। इसमें अन्य दार्शनिक सम्प्रदायों में वर्णित मायावाद का भी तुलनात्मक परीक्षण किया गया है।

माया के पर्यायभूत विविध शब्दों के साथ माया की अन्विति का परीक्षण प्रस्तुत करते हुए मायावाद के सिद्धान्त का उपस्थापन और उसके विनियोग पर विचार किया गया है। साथ ही साथ माया के मिथ्यात्व और अनिर्वचनीयत्व आदि विषयोंका सविस्तर वर्णन इस ग्रन्थ में प्राप्त होता है। निश्चित रूप से मायावाद का विवेचन अन्य अनेक ग्रन्यों में प्राप्त होता है, किन्तु समग्र रूप से एक ही स्थान पर अद्वैत वेदान्त के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण विषय को सुधीजनों के सम्मुख ला पाने का एक लघु प्रयास प्रस्तुत ग्रन्थ के माध्यम से किया गया है।

अघटितघटनापटीयसी माया अद्वैत वेदान्त का ऐसा तत्व है जिस पर उस दार्शनिक सम्प्रदाय का पूरा वितान खड़ा है। सामान्य व्युत्पत्तिजन्य अर्थ के द्वारा मा न् या , अर्थात् जो नहीं , इस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाली माया वास्तव में कुछ नहीं है, फिर भी वही इस संसार चक्र के भ्रामण में एक मात्र तत्त्व है। मात्यस्यां विश्वमिति माया इस अर्थ की बोधिका माया अद्वैत वेदान्त के अनुसार सत् तथा असत् से विलक्षण होने के कारण अनिर्वचनीय है। अनिर्वचनीय होने के कारण यह स्वप्न, गन्धर्व नगर अथवा शशप्राङ्ग आदि कल्पनाओं से भी भिन्न है। इस माया तत्त्व से युक्त होकर ही परमेश्वर सृष्टिकर्त्ता बनता है। इसी कारण अद्वैत वेदान्त का ब्रह्म जगत् का उपादान कारण भी है और निमित्त कारण भी।

यद्यपि माया शब्द का उल्लेख ऋग्वेद से लेकर अनेक उपनिषदों में प्राप्त होता है, किन्तु माया शब्द का जिस रूप में विवेचन आदि शंकराचार्य ने किया है, वह वेदों और उपनिषदों की माया से भिन्न ही है । यों ऋग्वेद में माया को सृष्टिकर्त्री शक्ति के रूप में सम्बोधित किया गया है और अद्वैत वेदान्त भी किसी न किसी रूप में जगत् की उत्पत्ति में माया की अपरिहार्यता को स्वीकार करता है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि दोनों स्थलों पर वर्णित माया एक ही है। प्रमुख उपनिषदों में भी कुक्के स्थलों में माया का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह माया भी शंकराचार्य की माया से भिन्न कोटि की ही प्रतीत होती है। शंकर ने जिस रूप में माया के मिथ्यात्व का विवेचन किया है, उपनिषदों की माया वैसी नहीं है जिसकी निवृत्ति ज्ञान के द्वारा दर्शायी गयी हो। रज्जु में सर्प की प्रतीति की तरह शंकराचार्य का जगत् उस रूप का नहीं है ।

जार्ज थीबो और कोलब्रुक आदि विचारक इसी सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं कि उपनिषदों की माया की व्याख्या करने पर भी शंकराचार्य की माया उस औपनिषदिक माया से भिन्न ही है। कोलब्रुक तो थीबो से एक कदम आगे बढ़ते हुए स्पष्ट रूप से कहते हैं कि अद्वैत वेदान्त में प्रतिपादित जगत् का मायात्व, मिथ्यात्व और स्वप्नावभासत्व आदि विचार उपनिषदों में प्राप्त नहीं होते हैं। मैक्समूलर भी मायावाद के सिद्धान्त को उपनिषदों के उत्तरकाल की ही देन स्वीकार करते हैं और कहते है कि उपनिषदों में माया को मिथ्या सिद्ध करने वाला सिद्धान्त प्राप्त नहीं होता है। अनेक आलोचक तो यहाँ तक कह डालते हैं कि न केवल मायावाद, अपितु शंकराचार्य का पूरा अद्वैतवाद आचार्य शंकर की अपनी कल्पना है, हाँ, उस कल्पना को रूप देने के लिए उन्होंने उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र का सहारा लिया है।

अद्वैत वेदान्त का मायावाद कोई स्वतन्त्र सिद्धान्त नहीं है, अपितु वह अद्वैतवाद का एक अंग तत्त्व ही है । वस्तुत सिद्धान्त तो अद्वैतवाद है जिसका मायावाद एक उपांग है । किन्तु वह माया कैसा तत्व है, इसकी स्पष्ट परिचिति अत्यन्त दुरूह है। यद्यपि माया शब्द का पूर्णतया सही सही पर्याय कोई भी शब्द नहीं है. फिर भी अनेक शब्द दर्शनग्रन्थों में अथवा शंकराचार्य की व्याख्याओं में भी मिलते हैं, जिनका परीक्षण माया शब्द के पर्याय के रूप में आचार्यों, विद्वानों, विचारकों और समीक्षकों ने किया है।

माया के पर्याय के रूप में अविद्या शब्द का उल्लेख यत्र तत्र स्वयं शंकराचार्य ने भी किया है। ब्रह्म और जगत् में जो प्रार्थक्य हमारे मन में प्रतीत होता है, उस अविद्या रूप बीज शक्ति का विनाश विद्या के उदय से हो जाता है। जीवात्मा की यह स्वरूपस्थिति ब्रह्मत्व की प्राप्ति है। जीव पर जब तक अविद्या का साम्राज्य रहता है तब तक वह इस नामरूपात्मक प्रपह्यात्मक जगत् को सत्य समझते रहता है।

शंकराचार्य के अनुसार यह अविद्या ही जगत्( की उत्पन्नकर्त्री बीजशक्ति है। अब यहाँ प्रश्न उठता है कि अविद्या और माया दोनों ही शब्द पूर्णतया एक ही अर्थ को यदि अभिव्यक्त करने वाले हैं तो शंकराचार्य ने दो शब्दों का उल्लेख क्यों किया? अनेक आलोचक यह मानते हैं कि माया शुद्धसत्त्वप्रधाना है और अविद्या मलिनसत्त्वप्रधाना तथा माया विषय रूप है और अभिका विषयीरूप, किन्तु कुछ चिन्तक इस भेद को स्वीकार नहीं करते हैं और यह भी सिद्ध करते हैं कि अविद्या और माया शब्द आचार्य शंकर के अनुसार एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं।

आनन्दगिरि जैसे भाष्यकार भी दोनों के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं। अनुशीलन करने पर हम पाते हैं कि शंकराचार्य ने यत्र तत्र माया के विषयरूपत्व अैर विषयीरूपत्व का प्रतिपादन किया है और अविद्या का भी। अत दोनों के प्रार्थक्य को दर्शाने के लिए कोई स्पष्ट रेखा का निर्धारण सम्भव नहीं है। हाँ, कहीं कहीं यह भी वचन मिलता है कि माया का ईश्वर से सम्बन्ध है और अविद्या का जीव से।

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