Agnihotra (A Study) (अग्निहोत्र)
₹450.00
Author | Dr. Dharmendra Shastri |
Publisher | Vidyanidhi Prakashan, Delhi |
Language | Sanskrit Text With Hindi Translation |
Edition | 2017 |
ISBN | 978-9385539091 |
Pages | 382 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | VN0001 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अग्निहोत्र (Agnihotra) पाठकों के समक्ष “अग्निहोत्र-एक अध्ययन” प्रस्तुत करते हुए महती प्रसन्नता अनुभूत हो रही है। बहुत दिनों से मन में यह इच्छा बनी हुई थी कि अग्निहोत्र का वर्णन एवं प्रतिपादन किया जाए, क्योंकि इसका वर्णन समस्त वैदिक एवं लौकिक वाङ्मय में प्रचुरता से उपलब्ध होता है। स्वयं भगवती श्रुति में अग्निहोत्र की महिमा विस्तार से वर्णित है। पुरुषसूक्त में साक्षात् परब्रह्म परमात्मा ही यज्ञस्वरूप है। उसी यज्ञस्वरूप परमपिता परमेश्वर से यह सृष्टि रूपी महान् यज्ञ चल रहा है। अग्निहोत्र का उद्देश्य मनुष्य को असुरत्व एवं मनुष्यत्व से भी ऊपर उठकर देवत्व को प्राप्त कराना है। यह बात बृहदारण्यक उपनिषद् के पञ्चम अध्याय के उस कथानक से सम्बन्धित है। जिसमें यह वर्णित है- प्रजापति की तीन संतान ‘देव’, ‘मनुष्य’ और ‘असुर’ उनके पास उपदेश ग्रहण करने गये। प्रजापति ने तीनों को एक अक्षर ‘द’ का उपदेश दिया और उनसे पूछा कि इसका अभिप्राय समझ लिया? देवताओं ने उत्तर दिया कि हमने यह समझा है कि दाम्यत इति न आत्थ इति। (बृहदारण्यक ५.२.१) दम-इन्द्रियों को दमन करो। प्रजापति ने उत्तर दिया कि ठीक समझ गये। मनुष्यों ने उत्तर दिया-हमने समझा है-दत्त इति न आत्थ इति। (बृहदारण्यक ५.२.२) दान करो। प्रजापति ने कहा, हाँ तुम भी समझ गये। फिर असुरों से पूछने पर उन्होंने उत्तर दिया-हमने यह समझा है कि-दयध्वम् इति। दया करो। प्रजापति ने उनको भी सही बतलाया। इस प्रकार तीन शिक्षाएँ मिली। दम, दान और दया।
संसार में तीन प्रकार के मनुष्य हैं देव, मनुष्य और असुर तीनों प्रजापति की सन्तान हैं। परन्तु अपने संस्कारों से (कार्यों के द्वारा स्वभाव बन जाने से) देव श्रेष्ठ हैं। मनुष्य साधारण हैं और असुर निकृष्ट हैं। असुर वे हैं जो अपने लाभ के सामने किसी दूसरे के लाभ की परवाह ही नहीं करते। स्वार्थ सिद्धि ही उनका परम ध्येय है। अपने लाभ के लिये वे दूसरों को मारने लूटने अथवा अन्य प्रकार से हानि पहुँचाने में जरा भी संकोच नहीं करते। वस्तुतः दूसरों के कष्ट दूर करने के भाव से हमारा आत्मा उच्च हो जाता है और हममें विशालता के भाव आ जाते हैं। यही यज्ञ है। इसी के प्रभाव से मनुष्य देवता बन जाते हैं।”
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