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Amrit Path (अमृतपथ)

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Author Swami Maheshanad Giri
Publisher Dakshinamurty Math Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2000
ISBN -
Pages 368
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code dmm0004
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Description

अमृतपथ (Amrit Path) निज से प्रेम वह सर्वसुलभ तत्त्व है जिसे उपाय बनाकर व्यापक प्रत्यक् स्वरूप का अनावरण मोक्षफलक सरल प्रक्रिया है। इस सन्दर्भ का मार्मिक प्रकाशन बृहदारण्यक उपनिषत् के याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद में प्रकट है। भाष्य, वार्तिक, वार्तिकसार और पंचदशी के आत्मानंद प्रकरण में विशेषतः विकसित यह साधनक्रम सबके अनुभव का सदुपयोग कर लेता है, और सूक्ष्मतर शास्त्रीय पद्धतियों की कठिनाइयों से दूर रहता है। विनियोग-विशेष से दोष भी गुण बन जाता है; सामान्यतः लोग स्वयं के प्रति ही प्रेम रखना दोष मानते हैं किन्तु गौण-मिथ्या-मुख्य के विवेक से वही प्रेम मुमुक्षा, विविदिषा द्वारा आत्मबोध तक पहुँचाता है। श्रुति ने पति, पत्नी, पुत्र आदि की प्रियता का उल्लेख सभी अनात्म-प्रीतिविषयों के संग्रहार्थ तो किया ही है, लेकिन इन्हीं वस्तुओं को अभिप्रायविशेष से कहा है; कुछ साधनाओं को सूचित करने के लिये इनका कथन है। साधन-साध्य के प्रति प्रेम में तारतम्य को भी स्पष्ट करना यहाँ अभीष्ट है । इस विश्लेषण से प्रिय-प्रियतर-प्रियतम व्यवस्था सुस्पष्ट हो जाती है।

संसार से विरक्त मैत्रेयी उस सबसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहती थी जिससे वह अमृत न हो सके। अतः महर्षि याज्ञवल्क्य ने उसे अमृतपथ का निर्देश दिया। वेद ने घोषित किया है ‘तमेव विदित्वाति मृत्त्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय’ अमरता का एकमात्र मार्ग आत्मज्ञान है अतः मैत्रेयी को यही रास्ता बताया कि आत्मा को देखे। इसे देखने के लिये एकाग्रतापूर्वक, समझते हुए प्रमाणानुसन्धान आवश्यक है। भेदहीन आत्मा को समझने में उपयोगी अनेक दृष्टान्त तथा एकायन-प्रक्रिया याज्ञवल्क्य ने समझाई है; और जिससे सब जाना जाता है वह किसी ज्ञान का विषय नहीं बन सकता, इसे स्पष्ट किया है। यह अविषय आत्मा ही प्रियतम है जिसका विज्ञान ही अमृत का पथ है।

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