Susruta Samhita Set of 3 Vols. (सुश्रुत संहिता 3 भागो में)
₹1,211.00
Author | Dr. Anant Ram Sharma |
Publisher | Chaukhamba Surbharti Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-93-82443-50-6 |
Pages | 1762 |
Cover | Paper Back |
Size | 16 x 9 x 24 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SUR0027 |
Other | Dispatched in 3 days |
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सुश्रुत संहिता 3 भागो में (Susruta Samhita Set of 3 Vols.) आयुर्वेद शाश्वत है और उसकी परम्परा अनादि है। इसका प्रादुर्भाव ब्रह्मा से कहने का अभिप्राय यही है। यदि कहीं आयुर्वेद की ‘उत्पत्ति’ कही गई हो तो वहाँ ‘अभूत्वोत्पत्ति’ नहीं है, अपितु उपदेश और अवबोध के द्वारा उसका प्रादुर्भाव मात्र है। उसी अर्थ में वाग्भट का ‘ब्रह्मा स्मृत्वाऽयुषो वेदम्’ यह कथन अत्यन्त सार्थक है। ब्रह्मा ने भी इसका स्मरण ही किया, उत्पन्न नहीं।
आयुर्वेद प्रागैतिहासिक काल से विद्यमान रहा है। इसके पर्याप्त प्रमाण उत्खनन से प्राप्त सामग्री से मिलते हैं। आयुर्वेद-गंगा की धारा जीवन-स्रोत से अनुस्यूत होकर अनादि काल से प्रवाहित हो रही है जिसके समानान्तर वैदिक धारा है। स्वभावतः इस कारण आयुर्वेद के कुछ तथ्य वैदिक संहिताओं में मिलते हैं। अतः जहाँ कहीं आयुर्वेद को किसी वेद का उपवेद या उपांग कहा गया तो इसका तात्पर्य इतना ही है कि उस वेद में आयुर्वेदीय तथ्य अधिक उपलब्ध होने के कारण वह उसके अधिक निकट है। ‘उप’ सामीप्य का बोधक है। सम्भवतः चरक ने इसी कारण आयुर्वेद को अथर्ववेद का उपवेद न कहकर केवल इतना ही कहा कि हमारी भक्ति अथर्ववेद में होनी चाहिए क्योंकि चिकित्सापरक तथ्य उसमें अधिक मिलते हैं।
संहिताएं इसी शाश्वत परम्परा की सन्देशवाहिका हैं। महर्षियों ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा-परखा और क्रम से एकत्र निबद्ध किया जो संहिता के नाम से प्रचलित हुई। आयुर्वेद के आठ अंग कहे गये हैं जिनमें दो शल्यतन्त्र और कायचिकित्सा प्रमुख हैं। इसके संकेत अत्यन्त प्राचीन काल से मिलते हैं। कहा जाता है कि अश्विनीकुमारों में एक शल्यविद् और दूसरे कायचिकित्सक के प्रतिनिधि थे। कालान्तर में ये धान्वन्तर और आत्रेय सम्प्रदायों के नाम से प्रख्यात हुए। धान्वन्तर- सम्प्रदाय का प्रतिनिधि आकर ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता और आत्रेय-सम्प्रदाय का मूल ग्रन्थ चरकसंहिता प्रसिद्ध हुआ।
सुश्रुत के सहाध्यायियों ने भी संहिताओं की रचना की थी, किन्तु उसमें सुश्रुत की संहिता प्रमुख रही है और आज यही एकमात्र संहिता-ग्रन्य आयुर्वेदीय शल्यतन्त्र का ज्ञान समेटे विश्व में उसका उद्घोष कर रहा है, जबकि अन्य शल्यज्ञ आचार्यों के वचन यत्र-तत्र टीकाओं में मात्र उद्धरण के रूप में दृष्टिगत होते हैं। सुश्रुतसंहिता में काशिराज दिवोदास धन्वन्तरि के उपदेश निबद्ध हैं जो उन्होंने सुश्रुत प्रभृति शिष्यों को दिये थे। शल्यज्ञान इसका मूल है (शल्यज्ञानं मूलं कृत्वा ) और प्रतान भी, जो समस्त ग्रन्थ में व्याप्त है (शल्यज्ञानं समन्ततः)। इसके साथ-साथ अन्य अंगों का भी विशद वर्णन मिलता है। चिकित्सास्थान में रसायन और वाजीकरण, उत्तरतन्त्र में शालाक्य, कौमारभृत्य और भूतविद्या तथा कल्पस्थान में अगदतन्त्र अन्तर्निहित है। इस प्रकार इसमें आयुर्वेद के आठो अंग हैं, प्रधानता शल्य की है।
सुश्रुत की वर्णन-शैली वैज्ञानिक एवं वस्तुपरक है। वह वस्तुओं को वर्गकृित कर सुव्यवस्थित रूप में प्रस्तुत करते हैं। द्रव्यों एवं व्याधियों के वर्गीकरण से यह स्पष्ट होगा। शल्यप्रधान ग्रन्थ होने के कारण स्वभावतः उनका ध्यान शरीररचना की ओर गया जिसके बिना शल्यतन्त्र की कल्पना नहीं की जा सकती। अत एव शारीरस्थान में इसका विशद वर्णन किया गया और प्रत्यक्ष ज्ञान के लिए शवच्छेद का भी विधान किया गया। मर्मों पर एक स्वतन्त्र अध्याय में विवेचन प्रस्तुत किया गया। इस प्रकार सुश्रुतसंहिता शल्यतन्त्र का आकर-ग्रन्थ होने के साथ-साथ शारीर का भी श्रेष्ठ ग्रन्थ बन गया।
सुश्रुत का काल-निर्णय एक दुरूह कार्य है। इसका कारण यह है कि उपदेष्टा काशिराज दिवोदास से लेकर पाठशुद्धिकर्ता चन्द्रट तक सुश्रुतसंहिता का काल-विस्तार लगभग २००० वर्षों का है। प्रतिसंस्कार के भी अनेक स्तर हैं। डल्हण ने नागार्जुन को प्रतिसंस्कर्ता कहा है। अनेक विद्वानों की मान्यता है कि नागार्जुन ने प्रतिसंस्कार के अतिरिक्त उत्तरतन्त्र भी जोड़ा, मूलग्रन्थ पञ्चस्थानात्मक ही था।
सुश्रुतसंहिता लोकप्रिय होने के कारण इसके अनेक अनुवाद और टीकाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं। इनमें डल्हणकृत ‘निबन्धसंग्रह’ व्याख्या सम्पूर्ण रूप में उपलब्ध एवं प्रसिद्ध है। प्रस्तुत टीका में डल्हण के विचार भी समाविष्ट हैं। डॉ० अनन्तराम शर्मा शल्यतन्त्र के विश्रुत विद्वान् हैं और अध्यापन का दीर्घकालीन अनुभव इन्हें प्राप्त है। इस क्रम में सुश्रुतसंहिता का भी इन्होंने गम्भीर अध्ययन किया जिसके आधार पर प्रस्तुत टीका की रचना हुई। इस उपयोगी कृति के लिए मैं उन्हें साधुवाद देता हूँ। आशा है विद्वज्जन, अध्यापक एवं छात्र इसे अपनावेंगे।
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