Bhrigu Sanhita (भृगुसंहिता)
₹1,275.00
Author | Dr. Surkant Jha |
Publisher | Chaukhamba Sanskrit Series Office |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2nd edition,2022 |
ISBN | 978-81-218-0374-8 |
Pages | 1082 |
Cover | Hard Cover |
Size | 19 x 6 x 25 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0105 |
Other | Dispatched In 1 - 3 Days |
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भृगुसंहिता (Bhrigu Sanhita) यह बड़ा प्रसिद्ध ग्रन्थ है। नाम से तो यह आर्ष मालूम होता है, परन्तु वराहमिहिर और भटोत्पल ने इसका उल्लेख नहीं किया है, अतः यह उनसे प्राचीन होगा, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। लोग कहते हैं कि इसमें प्रत्येक मनुष्य की जन्मकुण्डली रहती है। यदि यह सत्य है तो भिन्न-भिन्न लग्नों और भिन्न-भिन्न स्थानस्थित ग्रहों के भेदानुसार इसमें ७४६४९६०० कुण्डलियाँ और प्रत्येक कुण्डली का फल यदि १० श्लोकों में भी लिखा हो, तो ७५ कोटि श्लोक होने चाहिए। भृगुसंहितोक्त कुछ ऐसी पत्रिकाएँ मिलती हैं, जिनमें एक लग्न के भिन्न-भिन्न अंशों की भिन्न-भिन्न कुण्डलियाँ बनाई रहती हैं। इतनी कुण्डलियाँ मानने से उनकी संख्या बहुत बढ़ जायेगी। इतना बड़ा ग्रन्थ होना असम्भव है। पूना में एक मारवाड़ी ज्योतिषी के पास भृगुसंहिता का कुछ छपा हुआ भाग मैंने देखा है। उसमें लगभग २०० कुण्डलियाँ हैं। प्रत्येक का फल लगभग ७९ श्लोकों में लिखा है और इस प्रकार उसकी श्लोकसंख्या १४००० है। यह ग्रन्य बड़ा अशुद्ध है और उसमें लग्नों का कोई क्रम नहीं है। काश्मीर में जम्मू के सरकारी पुस्तकालय में भृगुसंहिता है। उस पुस्तकालय का सूचीपत्र छपा है, उससे ज्ञात होता है कि वहाँ की भृगुसंहिता में लग्नों का क्रम है और उसकी ग्रन्थसंख्या लगभग १६०००० है। प्रत्येक कुण्डली का फल यदि ७० श्लोकों में लिखा होगा तो उसमें लगभग २३० पत्रिकाएँ होगा। भृगुसंहिता का कुछ भाग जिनके पास है, वे प्रसंगवशात् कुछ धूर्तता करते होंगे। किसी को नवीन पत्रिका बना कर उसे वे भृगुसंहितोक्त कह कर देते होंगे, फिर भी भृगुसंहिता ग्रन्थ है-इसमें सन्देह नहीं है। भृगुसंहितोक्त कुछ पत्रिकाएँ मैंने देखी हैं, उनके अधिकतर फल ठीक होते हैं।
आनन्दाश्रम में भृगसंहिता सरीखा ही भृगूक्त जातककल्पलता नाम का एक ग्रन्थ है। उसकी ग्रन्थ संख्या १८०० है और उसमें २०० कुण्डलियों का विचार किया गया है।
नाड़ीग्रन्थ-चदम्बरम् ऐयर बी०ए० ने ‘दी हिन्दू जोडिएक’ में लिखा है कि “नाड़ीग्रन्य में सभी भूत, वर्तमान और भविष्य मनुष्यों की जन्मकुण्डलियाँ हैं।” मैंने स्वयं पाँच नाड़ीग्रन्य देखे हैं और पाँच सुने हैं। सत्याचार्य कृत ध्रुवनाड़ीग्रन्थ सर्वोत्तम है। उसके लगभग ७० भाग दक्षिण भारत में भिन्न-भिन्न मनुष्यों के पास हैं। उनमें प्रत्येक मनुष्य के जन्मकालीन निरयण स्पष्ट ग्रह लिखे हैं। उनमें और (नाटिकल आल्मनांक द्वारा लाये हुए) सूक्ष्म सायन ग्रहों में सन् १८८३ के आरम्भ में ?01? 3′ * 1 C^ prime prime hat H २०।२५’२२” पर्यन्त अन्तर है। अत: मैंने उस वर्ष का अयनांश २०।२४।१५ निश्चित किया है। इस लेख में दो बातें बड़े महत्त्व की हैं। एक यह कि मद्रास प्रान्त में भृगुसंहिता सदृश बड़े-बड़े ग्रन्थ हैं और दूसरी यह कि उनके और नाटिकल आल्मनाक के ग्रहों में केवल सवा दो कला का अन्तर 4/6 (अयनांश का सान्तर होना अशुद्धि नहीं है)। चिदम्बरम् के लेख से वे तज्ज्ञ और विश्वसनीय पुरुष ज्ञात होते हैं। नाड़ीग्रन्थ की ग्रहस्थिति बड़ी सूक्ष्म है, यह अत्यन्त आश्चर्य की बात है।
अब पाठकों की जानकारी को आगे बढ़ाते हुए यह विचार कर लेना अनुचित नहीं होगा कि ये भृगु कौन हैं? इस प्रश्न का उत्तर पाने हेतु हमें यह भी तय करना होगा कि ‘भारत में ‘भृगु संहिता’ को इतना बड़ा सम्मान a R hat H प्राप्त है? आदि आदि।’ जहाँ तक मुझे ज्ञात है, आपको भी पता है कि भृगु नाम से वैदिक साहित्य के अनुसार एक महर्षि हो चुके हैं, जिन्हें ब्रह्माजी के दस मानस पुत्रों में स्थान प्राप्त है।
गीता के अध्याय-१० और श्लोक २५ dot overline 4 श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि महर्षियों में मैं महर्षि भृगु और एकाक्षर बीजों में ॐकार हूँ। यथा-
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्।
अब प्रश्न है कि वे किस काल में हुए? और इस प्रश्न के उत्तर में ही सब संशय का मूल समाया हुआ है; क्योंकि हमारे यहाँ जो आदि काल से युगपद्धति कालगणनार्थ प्रचलित है, जिसकी चर्चा हम ग्रन्थ के अन्दर कर चुके हैं, जो उसमें नहीं हैं, उसे यहाँ कहा जा रहा है, तदनुसार ब्रह्माजी के एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर के मनु, देवता और सप्तर्षि पृथक् पृथक् होते हैं, ऐसा हरिवंश ९.६; विष्णु पुराण ३-९ और मत्स्य पुराण ९ आदि में कहा गया है।
इस प्रकार चौदह मन्वन्तर के चौदह मनुओं में सात-सात मनुओं के दो श्रेणी कहे गये हैं। उनमें से पहली श्रेणी के सात मनुओं के नाम इस प्रकार हैं- स्वायम्भुव, स्वारोचिष, औत्तमी, तामस्, रैवत, चाक्षुष और वैवस्वत तथा ये सभी स्वायम्भुव आदि मनु कहे जाते हैं। इनमें से इस समय तक छः मनु व्यतीत हो चुके हैं, सातवाँ वैवस्वत मनु अभी चल रहा है। इसकी समाप्ति के पश्चात् दूसरी श्रेणी के सात मनु का क्रम पूरा होगा। जिनके नाम इस प्रकार हैं-सावर्णि, दक्षसावर्णि, ब्रह्मसावर्णि, धर्मसावर्णि, रुद्रसावर्णि, देवसावर्णि और इन्द्रसावर्णि। इसे देख सकते हैं- मनुस्मृति-१-६२.६३ और भाग-८.१३.७ तथा विष्णुपुराण-३.२ और भाग-८.१३ तथा हरिवंश-१.७।
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