Dharti Par Pani (धरती पर पानी)
₹255.00
Author | Dr. Rajendra Kumar, Dr. Shruti Mathur |
Publisher | Rajasthan Hindi Granth Academy |
Language | Hindi |
Edition | 2nd Edition, 2019 |
ISBN | 978-93-88776-46-2 |
Pages | 366 |
Cover | Paper Back |
Size | 13 x 2 x 21 (l x w x h ) |
Weight | |
Item Code | RHGA0078 |
Other | Book Dispatch in 1-3 Days |
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CompareDescription
धरती पर पानी (Dharti Par Pani) साफ़ या स्वच्छ पानी मनुष्य जीवन की मौलिक आवश्यकता है। इसके बिना जीवन असम्भव है। अनन्त काल से मनुष्य जाति, पानी का उसके कुदरती भण्डारों (नदी, झील/झरना तथा भूमि/मिट्टी में मौजूद कम गहराई पर पाये जाने वाले जल-भृद या एक्यूफर्स आदि) से अपनी आवश्यकता के अनुसार दोहन करती आ रही है। जलभृद (Aquifer) धरती के भीतर मौजूद उस संरचना को कहते हैं जिसमें मुलायम चट्टानें (बलुआ पत्थर, लाइमस्टोन आदि), छोटे-छोटे पत्थरों के जमाव, चिकनी मिट्टी या गाद के भीतर पानी भारी मात्रा में जमा रहता है। आदिकाल से प्रकृति ने भी इन भण्डारों को सदाशिव, स्वतः चलने वाले जल चक्र के सहारे संपोषित कर, चिरस्थाई बनाये रखा। समय के इस लम्बे अन्तराल में मानुष्यिक गतिविधियां सहज ही में स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल बनी रही थीं। किन्तु गत दो-ढाई सौ वर्ष के छोटे से अन्तराल में, मनुष्य की जीवन शैली में क्रांतिकारी परिवर्तन आया कि अब वे स्थानीय पारिस्थितिकी के अनुकूल न होकर, धीरे-धीरे उसके प्रतिकूल होने लगी हैं। इसी दौरान असीमित जन-वृद्धि के कारण, वत्सला पानी की खपत तो स्वभावतः बढ़ी ही, पर अब उसके उपयोग में विविधता भी समाने लगी। एक ओर तो अप्रत्याशित रूप से बढ़ी हुई आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने के लिये पानी का उपयोग कृषि में सिंचाई में व्यापक रूप में होने लगा तो दूसरी ओर उसकी बढ़ी खपत ताप-विद्युत उत्पादन सहित अनेक तरह के उद्योगों और सामाजिक कार्य-कलापों में भी होने लगी। अन्तत: पानी की माँग इतनी अधिक हो गई कि उसको केवल वर्षा और अन्य भू-सतही साधनों से पूरा नहीं किया जा सकता था। मांग पूरी करने के लिये मनुष्य ने अधिक गहरे भूमिगत साधनों का सहारा लेना शुरू कर दिया।
मनुष्य का ध्यान इस ओर नहीं गया कि भौमिजल भंडारों में पानी का मौलिक या वास्तविक स्रोत कहाँ और कैसा है? उसके भूमिगत धामों की संरचना कैसी है? और क्या भंडारों में पानी असीमित मात्रा में उपलब्ध है? परन्तु उसने उनका जल दोहन स्वछन्दता से शुरू कर दिया, बिना यह समझे कि इन स्रोतों में पानी कहाँ से आता है और किस-किस तरह से प्राक्तिक तौर पर जमा होता आया है। अब यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ रही है कि भू-जल दोहन में मनुष्य ने केवल अपना तात्कालिक आर्थिक स्वार्थ ही देखा। शनै: शनैः भूमिगत पानी के भंडार खाली होने लगे। साथ ही साथ मानुष्यिक गतिविधियों से उसके ठाँवों (भंडार, Habitats) पर अनजाने में प्रहार होते गये जिनसे उनके स्वभाव में बदलाव आने लगा और वे बड़ी मात्रा में नष्ट होने लगे। इसके बाद ही आज के वैज्ञानिक युग के मनुष्य का ध्यान इस ओर गया कि भौमिजल का मूल स्रोत वर्षाजल ही है और उसके ही कार्य-कलापों से भौमिजल के प्राकृक्तिक ठाँव कमजोर या नष्टप्रायः होते जा रहे हैं और उनकी संरचना में घातक परिवर्तन आता जा रहा है और भूमि में पानी भराव के रास्तों में अनेक प्रकार की रुकावटें भी खड़ी कर दी हैं। साथ ही, वैश्विक ऊष्मीकरण के कारण, वर्षा की मात्रा व उसका स्वभाव अपने परम्परागत रूप से बदलता जा रहा है।
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