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Ganesh Yag Rahasyam Athartha Ganesh Yag Paddhati (गणेशयाग रहस्यम् अर्थात गणेशयाग पद्धतिः)

127.00

Author Ashok Kumar Gaud Shastri
Publisher Chaukhamba Surbharati Prakashan
Language Hindi & Sanskrit
Edition 2013
ISBN -
Pages 448
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0274
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Description

गणेशयाग रहस्यम् अर्थात गणेशयाग पद्धतिः (Ganesh Yag Rahasyam) ‘यज्’ धातु से ‘यज-याच-यत-विच्छ-प्रच्छ-रक्षो नङ् (३।३।९०) इस पाणिनीय सूत्र द्वारा ‘नङ्’ प्रत्यय करने पर ‘यज्ञ’ शब्द निष्पन्न होता है। जिस कर्म विशेष में देवता, हवनीय द्रव्य, वेदमन्त्र, ऋत्विक् और दक्षिणा इन पाँचों का संयोग हो उसे यज्ञ कहते हैं। यह वचन मत्स्यपुराण १४४।४४ के हैं। प्रधानतया यज्ञ दो प्रकार के होते हैं श्रौत एवं स्मार्त। आज के इस कलिकाल में श्रौत यज्ञों का प्रचलन समाप्त हो चुका है। इस समय जो यज्ञ हो रहे हैं-वे स्मार्त यज्ञ के अन्तर्गत ही आते हैं। इस पवित्र भारतभूमि में यज्ञ आज से ही नहीं अपितु प्राचीन समय से होते चले आ रहे हैं, इसका मुख्य कारण यह है कि यज्ञ के द्वारा मनुष्य अपने पापों को दूर करता है और यज्ञ से वह अपनी समस्त मनोकामनाओं व स्वर्ग को प्राप्त करता है। यज्ञ ही संसार के समस्त पापों को नष्ट करता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि यज्ञे नष्टे देवनाशस्ततः सर्वं प्रणश्यति। (वायुपुराण ६०।६)

अर्थात् – यज्ञ के न होने से देवताओं का नाश होता है और देवताओं का नाश होने से सम्पूर्ण जगत का नाश होता है। स्मार्त यज्ञों के अन्तर्गत रुद्रयाग, विष्णुयाग, लक्ष्मीयाग, गायत्रीयाग, हनुमद्याग, रामयाग, महामृत्युञ्जययाग, सूर्ययाग, प्रजापतियाग, नवग्रहयाग, विश्वशान्तियाग, शतचण्डीयाग और गणेशयाग प्रमुख रूप से आते हैं।

हिन्दूधर्म में तैंतीस कोटि देवी-देवताओं का समावेश है और इनका अपना अलग-अलग प्रभुत्त्व भी है। किन्तु इन सभी देवी-देवताओं में एक विलक्षण देव गणेशजी हैं, गणेशजी की मान्यता भारतवर्ष में अत्यधिक प्राचीन समय से होती चली आ रही है, क्योंकि पंचदेव उपासना में शिव, विष्णु, सूर्य, शक्ति तथा गणेशजी को ही मान्यता प्राप्त हुई है। इससे यही सिद्ध होता है कि गणेशजी कोई साधारण देवता नहीं हैं, वे साक्षात् अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड नायक जगन्नियन्ता परात्पर ब्रह्म ही हैं। गणेशजी का जो महत्त्व दृष्टिगत होता है, वह सभी से विलक्षण है। किसी भी देव की आराधना के आरम्भ में, किसी भी सत्कर्मानुष्ठान में, किसी भी उत्कृष्ट एवं साधारण से साधारण लौकिककर्म में सर्वप्रथम गणेशदेवता का स्मरण एवं वन्दन करना अत्यन्त अनिवार्य है। इनकी अर्चना व वन्दना के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं। यह गणेशजी शिव-पार्वती के पुत्र के रूप में इस संसार में प्रकट हुए हैं। इनकी यह विशेषता है, यह अपने याचक की समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। ये समस्त विघ्नों का हरण करते हैं और शुभ मंगल करना इनकी मनोवृत्ति है। ये सदैव दूसरे के हित में लगे रहते हैं, सत्प्रवृत्त, पुण्यात्मा एवं अपने भक्तों के कार्य को यह निर्विघ्न रूप से पूर्ण करते हैं।

कृतयुग, त्रेता, द्वापर और आज के इस कलिकाल में भी सम्पूर्ण संसार में गणेशजी की पूजा एवं उपासना निरन्तर होती चली आ रही है। यही कारण है कि स्मार्तयज्ञों के अन्तर्गत गणेशयाग का अपना अलग ही महत्त्व है। गणेशयज्ञ में शुक्ल यजुर्वेद के तैतीसवें अध्याय के पैसठवें मन्त्र से बहत्तर मन्त्र तक आठ मन्त्रों से आहुति होती है। प्रतिदिन या पूर्णाहुति के दिन गणेशसहस्रनाम से हवन करने का विधान शास्त्र-सम्मत है। शास्त्रों के मतानुसार एकलक्ष आहुति इस यज्ञ में प्रदान की जाती है। इसमें सोलह या इक्कीस विद्वान् होते हैं और यह यज्ञ आठ दिनों में सम्पन्न होता है।

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