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Garud Puran Saroddhar (गरुडपुराण सारोद्धार)

128.00

Author Dr. Shyam Bapat
Publisher Shri Kashi Vishwanath Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN 978-93-92989-13-1
Pages 224
Cover Paper Back
Size 21 x 2 x 14 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0211
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Description

गरुडपुराण सारोद्धार (Garud Puran Saroddhar) प्रत्येक ब्रह्माण्ड के तीन अनुशासन विभाग होते हैं, उनको अध्यात्म विभाग, अधिदैव विभाग और अधिभूत विभाग कहते हैं। अध्यात्म ज्ञान राज्य के सञ्चालक ऋषिगण, अधिदैव कर्मराज्य के सञ्चालक देवगण और अधिभूत स्थूल राज्य के सञ्चालक पितृगण है। इस प्रकार ये दैवी जगत के तीन विभागों के चालक हैं। इसलिये प्रत्येक मनुष्य के ऊपर तीन ऋण रहते हैं ऋषिऋण, देवऋण ओर पितृऋण। वेदशास्त्रादि के पाठ द्वारा, यज्ञादि के साधन द्वारा, सन्तानोत्पत्ति और पितृपूजा के द्वारा तीन ऋणों को चुका देने से और आध्यात्मिक आधिदैविक और आधिभौतिक शुद्धि से ऋषिगण, देवतागण और पितृगण सन्तुष्ट होते हैं ओर उससे दैवी शक्ति प्रसन्न होती है ऐसा सूर्य गीता में कहा है-

ऋषयो देववृन्दाश्च तथा पितृगणाः सदा। मोदन्ते तेन जगतां जनयित्री प्रसीदति।।

ऋतुओं में विपर्यय न होने देना या विपर्यय करना, स्वास्थ्य विधान या विपर्यय करना, मनुष्य का स्थूल शरीर मातृगर्भ में उत्पन्न करना ये सब कार्य पितृगणों की कृपा से हुआ करते हैं। जिस प्रकार पितृगण प्रत्येक जीव एवं उसके माता-पिता के कार्मनुसार जैसी सन्तति के उपयोगी स्थूल शरीर की सामग्री मातृगर्भ में एकत्रित करते हैं वैसे ही यथा योग्य आत्मा अपने सूक्ष्म शरीर के सहित अन्य सूक्ष्म लोकों से मातृगर्भ में पहुँचा दिया जाता है। इस प्रकार स्थूल शरीर बनाने में पितरों का और सूक्ष्म शरीर बनाने में देवताओं की मुख्य भूमिका रहती है। इसीलिये हमारे यहाँ इन दोनों से सम्बन्धित कार्यों का विशेष महत्त्व है और उसमें प्रमाद न करने के लिये श्रुति का आदेश भी है-

‘देव पितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्’। पुराणों में तो देवकार्य से भी अधिक पितृकार्य को कहा है, क्योंकि पितरों का सीधा सम्बन्ध हमारे स्थूल शरीर से है। ‘पुत्रेण लोकान् जयति श्रुतिरेषा सनातनी’ ऐसा कहा है। जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि पुत्र से जहाँ इस लोक में आनन्द मिलता है वैसे ही उसके द्वारा अपने कर्तव्य पूर्ण किये जाने पर परलोक भी सुधर जाता है। इसलिये प्रत्येक व्यक्ति में पुत्रेषणा बड़ी प्रबल रहती है। जीवित अवस्था में माता-पिता की सेवा करने, मृत्यु के बाद विधिपूर्वक और्ध्वदैहिक कृत्य करने और गया श्राद्ध करने पर ही वह पुत्र कहलाने का अधिकारी होता है। जैसा कि गरुड़ पुराण में भी कहा है। औध्वदैहिक कृत्य तो मरने के बाद ही होता है। इसलिये यह भूलोक मृत्युलोक भी कहलाता है। मृत्यु के बाद पुनर्जन्म भी होता है।

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