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Gautam Dharma Sutrani (गौतमधर्म सूत्राणि)

318.00

Author Dr. Umesh Chandra Pandya
Publisher Chaukhambha Sanskrit Sansthan
Language Sanskrit
Edition 2023
ISBN 978-93-81608-01-2
Pages 292
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0594
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Description

गौतमधर्म सूत्राणि (Gautam Dharma Sutrani) सूत्र साहित्य भारतीय वाङ्मय का एक अनूठा वर्ग है और इसकी विशेषता है इसकी अनोखी शैली। वैदिक साहित्य में सूत्रों का काल अध्ययन और चिन्तन की एक परम्परा का प्रतिनिधि है और भारतीय साहित्य में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। यह वैदिक साहित्य को परवर्ती संस्कृत साहित्य से जोड़ने वाली श्रृंखला है। जैसा कि माक्स म्यूल्लेर ने कहा है इन सूत्रों की शैली का परिचय उसी व्यक्ति को मिल सकता है जिसने इन्हें समझने का प्रयत्न किया है और इनका शाब्दिक अनुवाद तो संभव हो ही नहीं सकता। सूत्र का अर्थ है धागा और सूत्रों में छोटे, चुस्त, अर्थगर्भित वाक्यों को मानों एक धागे में पिरोकर रखा जाता है। संक्षिप्तता इनकी विशेषता है। पश्चिमी विद्वानों ने इन सूत्रों की शैली पर बहुत आलोचनात्मक ढंग से विचार किया है। प्रो० माक्स म्यूल्लेर ने प्राचीन संस्कृत साहित्य के इतिहास नामक ग्रंथ में सूत्र साहित्य के सन्दर्भ में कहा है:-

“Every doctrine thus propounded, whether Grammar, metre, law, or philosophy, is reduced to a mere skeleton. All the important points and joints of a system are laid open with the greatest precision and clearness, but there is nothing in these works like connection or development of ideas.” (Page 37)

कोलेब्रक ने भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया है :

“Every apparent simplicity of the design vanishes in the perplexity of the structure. The endless pursuit of exceptions and limitations so disjoins the general precepts, that the reader cannot keep in view their intended connection and mutual relation. He wonders in an intricate maze, and the clue to the labyrinth is continually slipping from his hands.”

सूत्र रचनाओं में अनेक शताब्दियों के ज्ञान का भण्डार एकत्र किया गया है। वे शताब्दियों के चिन्तन, मनन और अध्ययन के परिणाम हैं और उन्हें जो रूप प्राप्त हुआ है वह भी अनेक शताब्दियों की अनवरत परम्परा का परिणाम है। धर्मसूत्रों को श्रुति के अन्तर्गत नहीं माना जाता है, जैसा कि इसके पूर्ववर्ती साहित्य-संहिता और ब्राह्मण को, और इस प्रकार इसे अपौरुषेय न मानकर पौरुषेय माना जाता है। यदि ब्राह्मणों और परवर्ती काल के मन्त्रों के साथ तुलना करें तो हमें सूत्रों में ऐसी कोई बात नहीं मिलती जिसके कारण उन्हें श्रुति में सम्मिलित न किया जाय। हाँ, इसका एक ठोस कारण हो सकता है उनकी बाद के समय की रचना । इनके मनुष्यों द्वारा लिखित होने का स्पष्ट ज्ञान है, यथा :

यथैव हि कल्पसूत्रग्रंथानितरांग स्मृति निबंधनानि चाध्येत्रध्यापयितारः स्मरन्ति तथाश्वलायनबौधायनापस्तंबकात्यायनप्रभृतीन् ग्रंथकारत्वेन । श्रुति के विपरीत स्मृति में न केवल सूत्र रचनाएं आती हैं अपितु मनु, याज्ञवल्क्य, पाराशर आदि के श्लोक में निबन्ध ग्रंथ भी आते हैं, जिन्हें स्पष्टतः स्मृति कहा जाता है।
स्मृति का आधार भी श्रुति ही है। श्रुति से स्वतन्त्र रूप में स्मृति की प्रामा णिकता नहीं होती। जैसाकि कुमारिल ने कहा है इसके नाम से ही यह तथ्य स्पष्ट है :

पूर्वविज्ञानविषयज्ञानं स्मृतिरिहाच्यते ।

पूर्वज्ञानाद्विना तस्याः प्रामाण्यं नावधार्यते ॥

इस प्रकार सूत्रों के दो विस्तृत वर्ग किये जाते हैं: श्रौतसूत्र और स्मार्तसूत्र । इनमें श्रौतसूत्र तो वे हैं जिनके स्रोत श्रुति में मिलते हैं और स्मार्त वे हैं जिनका कोई इस प्रकार का स्रोत नहीं है। यह स्मरणीय है कि जिन विषयों का विवेचन सूत्रों-श्रौत, गृह्य, और समयाचारिक-में किया गया है, उन्हीं का प्रतिपादन श्लोकबद्ध स्मृतियों में भी किया गया है। जैसा कि आगे बताया जायगा इनका अन्तर विषयवस्तु का नहीं अपितु उनके काल और उनकी शैली का है।

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