Go Ank (गो अंक)
₹280.00
Author | - |
Publisher | Gita Press, Gorakhapur |
Language | |
Edition | 11th edition |
ISBN | - |
Pages | 720 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | GP0185 |
Other | Code - 1773 |
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CompareDescription
गो अंक (Go Ank) ‘गौ मनुष्योंके जीवनका अवलम्ब है, गौ कल्याणका परम निधान है, पहलेके लोगोंका ऐश्वर्य गौपर अवलम्बित था, आगेकी उन्नति भी गौपर अवलम्बित है, गौ ही सब समय पुष्टिका साधन है।’ भारतवर्षका एक नाम ‘पुण्यभूमि’ है। यह नाम इस देशके अधिवासियोंका विशेष उद्देश्य प्रकट करता है। प्राणिमात्र जिस वस्तुकी स्वाभाविकी इच्छा रखते हैं, उसीको शास्त्रकार सुख कहते हैं। ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जो सुखकी इच्छा न रखता हो। द्वन्द्वातीत परमात्माने सुख-दुःखादि द्वन्द्वोंके साथ ही उनके कारण भी सुव्यवस्थित रूपसे निर्मित किये हैं और ऐसे कार्य कारणादि सर्वार्थद्योतक, प्रदीपतुल्य वेदादिकोंका उद्धव निःश्वासवत् लीलामात्रसे उन जगदीश्वरने ही किया है।
एवंभूत कार्य-कारणभावापन्न प्रपञ्चके निर्माणकर्ता उसको सुस्थितिकी इच्छा करें, यह स्वाभाविक ही है। इस ईश्वरेच्छामें बाधक होनेवालोंको दण्ड देनेवाली और जगत्-स्थितिका परिपालन करनेवाली ईश्वरीय शक्ति कितनी महान् है, इसकी कल्पना पुराणादिकोंमें वर्णित अवतार-कथाओंसे की जा सकती है। जगत्-स्थितिकी कारणस्वरूपा सत्ताओंमें एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सत्ता गोमाताको है, यह बात ऊपर उद्धृत किये हुए भगवान् वसिष्ठके वचनसे स्पष्ट है। श्रुति-स्मृति-पुराणादि ग्रन्थोंमें प्रतिपादित अलौकिक सुखके साधक कर्मोंके साथ-साथ लौकिक सुखके साधक कर्मोंके लिये भी गौको अत्यन्त आवश्यकता है, इस विषयमें किसी भी विचारशील पुरुषका मतभेद नहीं हो सकता। किसी भी लौकिक स अलौकिक कार्यकी सिद्धिके लिये सुदृढ़ शरीरका होना आवश्यक है। श्रुति बतलाती है कि बलहीन मनुष्य की आराम-लाभ नहीं कर सकता। सारे लौकिक व्यवहार भी बलायत्त ही होते हैं। अतः सव कायोंकी सिद्धि जिस वलपर अवलम्बित है, उस बलकी प्रतिष्ठा गोमाता ही अपने दूध, घी, मक्खन आदिके द्वारा कराती है। बल भी शारीरिक और मानसिक-दो प्रकारका होता है।
शारीरबलकी अपेक्षा मानसबल अधिक श्रेष्ठ मान जाता है। प्राचीन ऋषि-महर्षियोंने मानसवलको ही बढ़ाकर सकल-दुःखविनिर्मुक्त होनेकी ओर उसका उपयोग किया है। वैदिकधर्ममें आहार-विहारादिकोंके सम्बन्धमें जो निर्बन्ध हैं, वे इसी बलकी वृद्धिके लिये हैं। ‘बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्’ इस भगवद्वचनका भी यही अभिप्राय है। अतः शारीरबल-संवर्द्धनके अन साधनोंके रहते हुए भी, शरीर और मन दोनोंके दोष हरण कर मनोबलको बढ़ानेमें गोदुग्ध ही सर्वोत्तम आहार्य होनेसे गोमाताकी श्रेष्ठता सहज ही आकर्षक है। नन्दिनीके पावन संसर्गसे संवर्द्धित महर्षि वसिष्ठके ब्रह्मतेजों चकाचौंध होकर सम्पूर्ण मानुषानन्दके भोक्ता राजा विश्वामित्रको ‘धिग्बलं क्षत्रियबलम्’ कहकर अपना ही चत धिक्कारना पड़ा और ब्रह्मतेजकी खोजमें राजपाट त्यागकर तपका आश्रय लेना पड़ा। भगवान् वसिष्ठकी होमधेनुको सिंहका ग्रास होनेसे बचानेके लिये महाप्रतापी राजा दिलीप अपने सार्वभौम ऐश्वर्य, यौवन अवस्था और सुंदर शरीरकी कोई परवा न कर अपने प्राण होमनेको तैयार हो गये। गौओंकी रक्षाके लिये ही भगवान् गोपालकृष्णने गोवर्द्धन पर्वत उठा लिया।
समर्थ गुरु रामदास स्वामीकी आज्ञासे छत्रपति महाराज शिवाजीने गो-ब्राह्मण-प्रतिपालनमें ही अपनी सारी सामर्थ्य लगा दी। इन सब बातोंसे गोमाताकी महत्ताका किंचित् परिचय मिलता है।। पहलेके लोग गोमाताकी इस महत्ताको समझते थे और गोरक्षामें विशेष यत्नवान् होकर अपना ऐहिक और पारमार्थिक कल्याण साधन करते थे। विराट एक माण्डलिक राजा थे, उनके पास लाखों गौएँ थीं, उन सबशे देख-भाल करनेका काम उन्होंने एक समय पाण्डुसुत सहदेवको सौंपा था। पर अब ऐसी गोशालाएँ रखनेवाले कितने राजा हैं।
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