Hevajra Tantram (हेवज्रतन्त्रम)
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Author | Kashinath Nyaupane |
Publisher | Indian Mind |
Language | Sanskrit & Hindi Translation |
Edition | 1st edition, 2012 |
ISBN | 81-86117-11-3 |
Pages | 176 |
Cover | Hard Cover |
Size | 22 x 1 x 14 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | IM0037 |
Other | Dispached in 1-3 Days |
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हेवज्रतन्त्रम (Hevajra Tantram) हेवज्रतन्त्र की देशना भगवान् तथागत ने निर्माणकाय द्वारा ८० वर्षों तक जम्बूद्वीप में निवास करते हुए बोधिसत्त्व वज्रगर्भ को की थी । इस हेवज्र का उपदेश किसी परम्परा द्वारा आया हुआ नहीं है, अपितु स्वयं बुद्ध द्वारा सीधे वज्रगर्भ को किया गया है। आचार्य बुस्तोन ने हेवज्र की बृहद् टीका व्याख्या तन्त्र में वज्रमाला के वचन को उद्धृत करते हुए कहा है कि चक्रसंवरतन्त्र की देशना के पश्चात् निर्माणकाय द्वारा मगध में चार मारों का दमन करते हुए जम्बूद्वीप में हेवज्रतन्त्र की देशना की गई, किन्तु किस स्थान विशेष में देशना की इसका स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध नहीं है।
हेवन में हे शब्द का अर्थ महाकरुणा है और वज्र का अर्थ प्रज्ञा है। महाकरुणा उपाय है। इस तरह यह तन्त्र प्रज्ञोपायात्मक है। प्रकृष्ट ज्ञान को प्रज्ञा कहते हैं। अद्वयज्ञान इसका अर्थ है। तन्त्र में प्रज्ञा का अर्थ शून्यता होता है। इस तरह यह हेवज्रतन्त्र शून्यता-करुणात्मक या प्रज्ञोपायात्मक है। हेवज्रमण्डल में हेरुक प्रधान देवता के रूप में उल्लिखित हैं। जब हेरुक अपनी प्रज्ञा के साथ होते हैं तो हेवज्र कहलाते हैं।
बौद्धतन्त्र में गुह्यसमाज तन्त्र के पश्चात् हेवज्रतन्त्र सर्वाधिक प्रसिद्ध है। हेवज्रतन्त्र योगिनीतन्त्र के रूप में अपना परिचय स्वयं देता है। इन दोनों का बौद्ध तन्त्र साहित्य पर गहरा प्रभाव है। दोनों के अनेक वचन अन्यत्र आनुपूर्वी से भी मिल जाते हैं। विस्तृत हेवज्रतन्त्र वाङ्मय के आभ्यन्तर सात भेद हैं – (क) मूलतन्त्र, (ख) संग्रहतन्त्र, (ग) उत्तरतन्त्र, (घ) उत्तरोत्तरतन्त्र, (ङ) आख्यातन्त्र, (च) फलतन्त्र ।
हेवज्रतन्त्र दो कल्पों में विभक्त है (क) वज्रगर्भाभिसम्बोधिकल्प और (ख) मायाकल्प। इसीलिए इसे द्विकल्प भी कहा जाता है। प्रायः सभी टीकाकारों ने इस तन्त्र को द्विकल्प नाम से उल्लेख किया है।
हेवज्रतन्त्र में हेवज्र के स्वरूप, साधक, मुद्रा, महामुद्रा, साधनास्थल आदि का विस्तार से विवेचन है। हेवज्रतन्त्र में हेवज्र इसके उपास्य है। वे कपालों की माला धारण करते हैं, वीर हैं तथा सदैव नैरात्म्य से आश्लिष्ट रहते हैं। उनका वर्ण नीला है तथा वे अरुणाभा से युक्त हैं। उनके नेत्र बन्धुक पुष्प जैसे लाल हैं। पिंगल वर्ण एवं ऊध्र्वोत्थित केश हैं। वे पाँच मुद्राओं से अलंकृत हैं। वे चक्र, कुण्डल, कण्ठी धारण किये हुए हैं। वे हाथ में सोने का आभूषण धारण किये हुए हैं। मेखला पहने हुए हैं। उनकी दृष्टि क्रोध से भरी हुई है। वे सोलह वर्ष के हैं और व्याघ्र चर्म पहने हुए हैं। उनके हाथों में वज्रकपाल, खट्वाङ्ग और कृष्णवज्र हैं। अष्ट योगिनियों से परिवृत्त होकर वे श्मशान में क्रीडा करते हैं। वे चतुर्भुज हैं। इनकी प्रथम वाम भुजा में देवताओं और असुरों के रक्त से पूर्ण नरकपाल है। प्रथम दक्षिण भुजा में वज्र है। शेष दोनों भुजाओं में प्रज्ञा भगवद्रूपिणी वज्रवाराही अलिङ्गित रूप में है।
हेवज्रतन्त्र में मुद्रा का भी वर्णन मिलता है, जिसे प्रज्ञास्वभावा कहा गया है। हेवज्र में वर्णित मुद्रा सुन्दर मुखवाली, विशालाक्षी, रूपयौवन मण्डित, नीलकमल के समान वर्णवाली, कृपावती है। वह वज्रकन्या कही गई है और इसे ही ग्रहण करने के लिए वीर को उपदेश किया गया है। मुद्रा तो सुखवहा होती है। उससे संयुक्त होकर साधक को गुरु के पास जाना चाहिए।
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