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Jatak Parijat Set of 2 Vols. (जातक पारिजातः 2 भागो में)

595.00

Author Dr. Satyaendr Mishr
Publisher Chaukhamba Sanskrit Series Office
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2018
ISBN 978-81-7080-306-5
Pages 1009
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0317
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Description

जातक पारिजातः 2 भागो में (Jatak Parijat Set of 2 Vols.)

प्रवृत्तिर्वा निवृत्तिर्वा नित्येन कृतकेन वा।

पुंसां येनोपदिश्येत तच्छास्त्रमभिधीयते ।।

मनुष्य के सामाजिक जीवन में ज्योतिष का अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। मनुष्य को अपने जीवन में आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं के अनुसार ज्योतिष द्वारा जानकारी प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक हो जाता है। विविध आवश्यकताओं के साथ ज्योतिष का एक निश्चित सम्बन्ध होता है जिसे योगों- दशाओं-भावों के द्वारा वर्गीकृत किया जाता है। मनुष्य के जीवन में सफलता असफलता उसके सम्पन्नता विपन्नता पर निर्भर करता है। फलित ज्योतिष में इसी सब का विचार किया जाता है। ये विचार योगों के आधार पर किये जाते हैं। ग्रहों के विशिष्ट संयोजन को हो योग कहा जाता है क्योंकि सभी ग्रहयोग योग नहीं होते हैं। ग्रहों के विशिष्ट योग मनुष्य जीवन के प्रमुख घटनाओं का सही आभास कराते हैं। ये योग फलित ज्योतिष के सार होते हैं।

ग्रहयोगों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जाता है- 1. योग, 2. अरिष्ट। योग का शाब्दिक बोध शुभ सूचक होता है जबकि अरिष्ट का शाब्दिक बोध कष्ट-दुर्भाग्य सूचक होता है। मनुष्य के जन्मकालिक ग्रहस्थिति तिथि-नक्षत्रों- योगों द्वारा उसके सुख दुःख का निर्णय जिस शास्त्र द्वारा किया जाता है उसे जातकशास्त्र कहा जाता है। जातकशास्त्र का मूलाधार द्वादशकोष्ठक वाला चक्र होता है जिसे कुण्डली भी कहते हैं। इसी कुण्डली में स्थित ग्रहों द्वारा योगों का अरिष्टों का निर्धारण-दशाओं का शुभाशुभ कथन एवं अष्टकवर्गादि का विवेचन होता है।

जातकशास्त्र में फलकथनार्थ राशियों-भावों व ग्रहों का तादात्म्य देखा जाता है। जन्म के समय स्वक्षितिज के पूर्वभाग में जो राशि रहती है उसे लग्नराशि कहते हैं। जो लग्नराशि होती है उसकी संख्या को द्वादश कोष्ठक वाले चक्र के प्रथमभाव में लिखकर आगे और राशियों को स्थापित करते हैं। जन्मकालिक ग्रहों की स्थिति-दृष्टि-मित्रत्व-शत्रुत्व-उच्च-नीच के आधार पर फलों की शुभाशुभता में न्यूनाधिकता होती रहती है। फलों की शुभाशुभता एवं न्यूनाधिकता में कोई मतैक्य नहीं मिलता। इसमें कोई “इदमित्थं” प्रमाण या विधि नहीं है अतः ऋषिवचन या ग्रन्थ वैशिष्ट्य हों इदमित्थं प्रमाण माना जाता है। मनुष्य के जीवन से आकाशस्थ ग्रहों का सम्बन्ध होता है। यह सब ग्रहों के योग-दशा आदि से परिभाषित होता रहता है क्योंकि राशियों के ग्रहों के- अनुसार मनुष्यों की आकृति हावभाव-बुद्धि-कर्म आदि देखने को मिलते हैं। इन सबका विवेचन जातक शास्त्रीय ग्रन्थों में विशेषकर मिलता है।

जातक ग्रन्थों में आजकल जो उपलब्ध हैं उनमें कुछ पौरुषेय हैं तो कुछ अपौरुषेय। इन अपौरुषेय ग्रन्थों को आर्ष ग्रन्थ भी कहते हैं जिनमें जैमिनीसूत्र- पाराशरी आदि प्रमुख हैं। पौरुष ग्रन्थों में सबसे प्राचीन वराहमिहिर का बृहज्जातक (सन् ५०५ ई०) मिलता है जिसमें सत्य-मय-यवन-मणित्थ जीवशर्मा-विष्णुगुप्त आदि का नामोल्लेख मिलता है जिनके ग्रन्थ उस समय में उपलब्ध थे परन्तु आजकल वे उपलब्ध नहीं है। भट्टोत्पल ने लिखा है कि विष्णुगुप्त चन्द्रगुप्त के गुरु ‘चाणक्य’ थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि ईशवीय सन् से ३०० वर्ष पूर्व में भी यह जातकशास्त्र विद्यमान था।

प्रस्तुत ग्रन्थ “जातक पारिजात” पौरुष ग्रन्थों में एक उत्कृष्ट ग्रन्थ माना जाता है। इसमें फलविचार की जो शैली है वह चमत्कारिक है। जातक में फलविचार हेतु जो जो विषय होनें चाहिए वे सब इसमें उपलब्ध है। खेद का विषय है कि फलकथन की विधि से परिपूर्ण होते हुए भी यह ग्रन्थ ज्योतिष इतिहासज्ञों की दृष्टि से ओझल रहा है। सम्प्रति यह ग्रन्थ फलित ज्योतिष के पाठ्यग्रन्थों में प्रायः सर्वत्र विद्यमान है।

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