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Jyotish Dipika (ज्योतिषदीपिका)

136.00

Author Abhay Katyayan
Publisher Chaukhamba Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2nd edition
ISBN 978-81-218-0294-6
Pages 252
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0278
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Description

ज्योतिषदीपिका (Jyotish Dipika) भारतीय ज्योतिषशास्त्र का मूल उद्भव वेदों से हुआ है। ज्योतिष को वेद के छह अङ्गों में एक माना गया है अतः ज्योतिष शास्त्रवेदाङ्ग है। शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्दशास्त्र तथा ज्योतिष ये छह वेदाङ्ग हैं। इनमें व्याकरण (शब्दशास्त्र) वेद का मुख है, ज्योतिष शास्त्र वेद का नेत्र है। निरूक्त वेद के श्रोत्र (कान) हैं कल्प वेद के हाथ हैं। शिक्षा वेद की नासिका है तथा छन्द शास्त्र वेद रूपी पुरुष के दोनों चरण हैं-

शब्दशास्त्रं मुखं ज्योतिषं चक्षुषी,

श्रोत्रमुक्तं निरूक्तं च कल्पः करौ।

यातु शिक्षास्य वेदस्य सानासिका;

पाद पद्मद्वयं छन्द आद्यैर्बुधैः ।।

इन छहों अंगों में नेत्ररूपी ज्योतिष शास्त्र सबसे प्रमुख है क्योंकि किसी व्यक्ति के हाथ-पाँव, मुख, नाक तथा कान होने पर भी नेत्रहीन होने पर वह कुछ भी करने में समर्थ नहीं होता है इस कारण नेत्ररूपी ज्योतिषशास्त्र ही इन सब अंगों में प्रधान है। जबकि ज्योतिष शास्त्र प्रत्यक्ष तथा अनुभव में प्रमाणित है। यथा-

‘वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्योतिषं

मुख्यतया चाङ्गमध्येऽस्यतेनोच्यते ।

संयुतोऽपीतरैः कर्ण नासादिभिः

चक्षुषाङ्गेन हीनो न किञ्चित्करः ।।

अप्रत्यक्षाणिशास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् ।

प्रत्यक्षं ज्योतिषं शास्त्रं चन्द्रऽौंयत्र साक्षिणौ।।

‘अनुभूतिप्रदं नाम ज्योतिषं शास्त्रमुत्तमम्।

निगमान्निर्गतं लोके वन्द्यं विजयतेतराम्।।

‘यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।

तद्वद् वेदाङ्गशास्त्राणं ज्योतिषं मूर्ध्नि स्थितम्।।

इस ज्योतिष शास्त्र पर भारतीय मनीषियों ने समय-समय पर अनेक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचे हैं जिनमें अधिकांश इस्लामी आक्रमणों के समय धर्मान्ध एवं मतान्ध मुस्लिम फौजों के द्वारा लूटपाट करते समय नष्ट कर दिये गये हैं उनमें से जो अन्य बचे हैं, उन्हीं में से एक यह ग्रन्थ भी है। यह ग्रन्थ अद्भुत एवं प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें ज्योतिष शास्त्र का फलित विषय गागर में सागर की भाँति भर दिया गया है।

इस ग्रन्थ का नाम ‘दीपिका’ अथवा ‘शुद्धि दीपिका’ अथवा “ज्योतिष दीपिका” है। इसके रचयिता महिन्तापनीय सभा के पण्डित श्रीरामकृष्ण हैं। इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय के बीसवें श्लोक में जो लग्न राशियों के उदयमान दिये गये है वे उत्तरी अक्षांश २३/ ३०’ (साढ़े तेइस) के हैं। ग्रन्थ पर कवि कंकण गोविन्द भट्टाचार्य की लिखी हुई संस्कृत टीका मिलती है। श्री राधावाचार्य नाम के एक अन्य विद्वान् ने भी इस पर संस्कृत टीका लिखी है। इन सबसे अनुमान होता है कि ग्रन्थकार श्री रामकृष्ण की कर्मभूमि का पश्चिम बंगाल अथवा उड़ीसा में ही थी जिसे ‘महिन्तापनीय’ कहा गया है। इस प्रकार यह ग्रन्थ पूर्वी भारत में रचा गया है।

इस ग्रन्थ का रचनाकाल शकाब्द १०७२ के पूर्व का है क्योकि इस ग्रन्थ (दीपिका) का उल्लेख यमुना पार निवासी पद्मनाभ नामक विद्वान ने अपने ग्रन्थ ‘व्यवहार प्रदीप’ में किया है। श्रीशंकर बालकृष्ण दीक्षित के अनुसार ‘व्यवहारप्रदीप’ का रचनाकाल शकाब्द १०७२ के पश्चात् का है। इस प्रकार यह ग्रन्थ आज से न्यूनतम एक सहस्त्राब्दी प्राचीन है, ऐसा सिद्ध होता है।

इस ग्रन्थ में कुल आठ अध्याय है जिनमें कुल मिलाकर पांच सौ उनचास श्लोक हैं। इसमें अष्टक वर्गों की गणना में अन्य ग्रन्थों से अन्तर है तथा फलित बड़ा सटीक है। आठवें अध्याय में युद्ध यात्रा के मुहूर्त का अत्यन्त विस्तार से वर्णन है। ग्रन्थ की महत्ता तो इसी से समझी जा सकती है कि ‘बृहद दैवज्ञरंजन ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर इसके श्लोक उद्धृत किये गये हैं।

इतने उपयोगी ग्रन्थ की अच्छी तथा समयोपयोगी हिन्दी व्याख्या का अभाव देखकर मैंने इसी सरल हिन्दी टीका लिखी है तथा विमर्श में विषय को स्पष्ट कर दिया है। उपयोगी सारिणियाँ तथा चक्र देकर वर्णित वस्तु को हस्तामलक की भाँति प्रदर्शित किया है। आशा है यह ग्रन्थ ज्योतिष शास्त्र के अनुरागियों के लिये उपयोगी सिद्ध होगा।

‘यावा मानव धर्मत्वाद् यावा मद् दृष्टि दोषतः।

मद्रणादौ त्रुटिर्जाता संशोध्या सा महोदयैः ।।

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