Karpatra Chintan (करपात्र चिन्तन)
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Author | Swami Sadanand Saraswati |
Publisher | Sri Vedanti Swami, Karpatradham, Kedarghat |
Language | Hindi |
Edition | 2nd edition, 2009 |
ISBN | - |
Pages | 236 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | KJM0003 |
Other | Old and Rare Book |
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CompareDescription
करपात्र चिन्तन (Karpatra Chintan) यद्यपि धर्म का वास्तविक स्वरूप “चोदना लक्षणोऽर्थः” इस जैमिनि सूत्र के अनुसार विधिनिषेधात्मक वेद से ही प्रतिपाद्य है तथापि वेदों का प्रामाण्य न माननेवालों के लिए उक्त धर्म-स्वरूप का ग्राह्य होना असंभव है। फिर भी कुछ धर्म का स्वरूप सभी को मानना व्यवहार के लिए आवश्यक है। कोई प्रबल पुरुष किसी निर्बल की सुन्दर स्त्री या धन का अपहरण न कर ले, इसलिए सामाजिक अथवा राष्ट्रिय व्यवहार परिस्थिति को सुचारु रूप से चलाने के लिए विज्ञजन समिति द्वारा निर्धारित नियम या कानून कुछ न कुछ मानने ही पड़ते हैं।
वे नियम चाहे किसी दूसरे के नहीं, बल्कि नियम निर्माता के ही किसी परिस्थिति में प्रतिकूल हों, सहसा उनका परिवर्तन नहीं हो सकता। यह तो हुई भौतिक हानि-लाभ को सामने रखकर नियम निर्माण की आवश्यकता। दूसरी बात यह है कि कर्तव्याकर्तव्य के औचित्यानौचित्य निर्धारण के लिए समय विशेष अपेक्षित है। उसकी प्राप्ति के लिए स्वभाव से या कामादि दोष से प्राप्त वेग निवारक किसी अनिवार्य श्रृंखला की आवश्यकता होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि देशकाल भेद से कर्तव्याकर्तव्यों का भेद हुआ करता है। किसी देशकाल में कोई कर्तव्य अकर्तव्य और किसी में अकर्तव्य कर्तव्य समझा जाता है। किसी समय कोई वस्तु पथ्य होती है, वहीं समयानान्तर में कुपथ्य हो सकती है।
गिरी से गिरी हालत में भी प्राणी अपने हित या कल्याण की उपेक्षा नहीं करता। यह बात अलग है कि वह हिताहित विचार करने में असमर्थ होकर हित को अहित और अहित को हित समझकर प्रवृत्त या निवृत्त हो। बड़े से बड़े मान्यगण्य बुद्धिमान् भी जो समाज या राष्ट्र के कर्णधार समझे जाते है और जिनके निश्चय के अधीन ही जनता अपना कार्यक्रम निर्धारण करती है, कभी-कभी समाज या राष्ट्र की कल्याण-पद्धति निर्धारण करने में लगती कर जाते हैं, जिससे उनकी अनुगामिनी जनता को जनक्षय, धनक्षय और शक्तिक्षय आदि बड़े-बड़े अनर्थों का अनुभव करना पड़ता है। अभिप्राय यह है कि “जीवमात्र की प्रज्ञा परिमित अर्थ को ही निर्धारण करने में समर्थ होती है, क्योंकि अविद्या कर्मादि से सर्वार्थावभासनशाली चित्ततत्व समावृत्त होता है।
जप, तप, धर्मानुष्ठानादि से जितनी मात्रा में जिसके अविद्यादि दोष का निराकरण होता है उतनी ही अधिक मत्रा में अनावृत चित्ततत्व सूक्ष्म अर्थ के विवेचन में समर्थ होता है। हम स्वयं ही अनुभव करते हैं कि जब हम अधिक कार्य में व्यग्र होते हैं, तब चंचलता तथा अनवधानता के कारण गम्भीर शास्त्रीय विषय अवगत नहीं होते। इसलिए कहना पड़ता है कि उस समय चंचलता के ही कारण उस विषय में हमारी बुद्धि ने काम नहीं दिया। ब्राह्ममुहूर्त में उसी अर्थ का विवेचन करें तो बहुत से विषय अवगत हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि चंचलता आदि दोषों से प्राणी संकुचित विकासवाली प्रज्ञा से कर्तव्याकर्तव्य निर्धारण नहीं कर सकता। इसलिए चंचलता आदि स्वाभाविक प्रवृत्ति को रोकने के लिए कोई अनिवार्य श्रृंखला होनी चाहिए।
ज्ञान –
गोविंदा गोविंदा गोविंदा
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Govind govind govind