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Kavya Mimansa Kavya Rahasya (काव्यमीमांसा काव्यरहस्य)

319.00

Author Dr. Ramanand Sharma
Publisher Chaukhambha Sanskrit Series Office
Language Hindi
Edition 2022
ISBN -
Pages 442
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0490
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Description

काव्यमीमांसा काव्यरहस्य (Kavya Mimansa Kavya Rahasya) यह काव्यशास्त्र और प्रमुखतः कविशिक्षा से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिससे राजशेखर को साहित्यिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। कृति अपूर्ण ही रह गयी है, कदाचित् कवि की जराजर्जर काया उनके चिन्तनप्रवाह को पूर्णता नहीं दे सकी। इसका प्रथम प्रकाशन सन् १९१६ ई. में हुआ था।

कविशिक्षा का यह प्रथम उपलब्ध ग्रन्थ है। यह अपूर्ण रह गया अथवा अपूर्ण उपलब्ध हुआ है – यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता, लेकिन सम्भावना प्रथम की ही अधिक है। ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं, जिनकी प्रस्तावना से कवि के सङ्कल्पों का पता चलता है, लेकिन रचयिता उन्हें पूर्ण नहीं कर पाये। पण्डितराज जगन्नाथ रचित ‘रसगङ्गाधर’ भी ऐसा ही प्रौढ़ एवं व्युत्पन्न ग्रन्थ है। गंगाधर = पञ्चानन शिव, रस रूपी गङ्गा को धारण करने वाला शिव रूप ग्रन्थ, लेकिन रचयिता इसका द्वितीय आनन भी पूर्ण नहीं कर पाया। बहुत सम्भव है, राजशेखर की ‘काव्यमीमांसा’ की भी यही स्थिति रही हो, सम्भावना इसी की अधिक है। केशव मिश्र ने ‘अलङ्कारशेखर’ में राजशेखर का नाम देते हुए तीन श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें दो उपमा से सम्बन्धित हैं-

समानमधिकं न्यूनं सजातीयं विरोधि च।
सकुल्यं सोदरं कल्पमित्याद्याः साम्यवाचकाः।।
अलङ्कारशिरोरत्नं सर्वस्वं काव्यसम्पदाम्।
उपमा कविवंशस्य मातैवेति मतिमम ।। (४/२/१६-१७)

(समान, अधिक, न्यून, सजातीय, विरोधी, सकुल्य, सोदर और कल्प-ये सभी शब्द साम्य के ही पर्यायवाची हैं। कवि-कुल के लिए अलङ्कारों में प्रधान, काव्य रूपी सम्पदा का सर्वस्व उपमा कविकुल की माता के समान उपकारक है-ऐसी मेरी सम्मति है।)

उत्पाटितैर्नभोनीतैः शैलैरामूलबन्धनात्।
तांस्तानर्थान् समालोच्य समस्यां पूरयेत्कविः॥ (७/२/१३)

(उखाड़े गये तथा आकाश तक पहुँचे हुए पहाड़ों की जड़ें जब तक पुनः स्थिर न हो जायें, तब तक की स्थिति का कवि पूर्ण प्रयोजन सहित विचारकर पूर्ति करे।) यदि ये इन्हीं राजशेखर के हैं तो ये आलङ्कारिक और वैनोदिक अध्यायों से सम्बद्ध हो सकते हैं। लेकिन यदि कवि की कृति इतनी प्रसिद्धि प्राप्त कर गयी थी तो उसकी प्रतियाँ अवश्यमेव उपलब्ध होनी चाहिये।

अपनी प्रौढ़ता और अभिनव चिन्तन के कारण ‘काव्यमीमांसा’ का महत्त्व अत्यधिक रहा है। परवर्ती आचार्यों ने इनके न केवल चिन्तन, बल्कि चिन्तनपद्धति का भी लाभ उठाया है। आचार्यों में क्षेमेन्द्र, भोज, हेमचन्द्र और वाग्भट को यह अत्यन्त प्रिय रही है। हेमचन्द्र ने इसके कई अध्यायों के सुदीर्घ उद्धरणों की अनुलिपि ‘विवेक’ टीका में की है। वाग्भट ने भी इन्हीं अंशों को प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः हेमचन्द्र से उद्धृत किया है। खेद है कि यह कृति अपूर्ण ही रह गयी। यदि यह पूर्णता प्राप्त करती और साहित्य के अध्येताओं को सम्पूर्ण रूप में प्राप्त हो जाती, तो निश्चयतः यह क्रान्तिकारी कृति होती।

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