Kiratarjuniyam Sarg 2 (किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग:)
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Author | Dr. Pramod Kumar Upadhyaya |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2012 |
ISBN | 978-93-81189-00-9 |
Pages | 104 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0029 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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किरातार्जुनीयम् द्वितीय सर्ग: (Kiratarjuniyam Sarg 2) किरातार्जुनीयम् संस्कृत साहित्य का प्रसिद्ध महाकाव्य है, जो भारवि द्वारा विरचित है। महाकाव्य की वृहत्त्रयी ‘किरातार्जुनीयम्’ ‘शिशुपालवधम्’ एवं ‘नैषधीयचरितम्’ में इसका प्रमुख स्थान है। माघ पर भारवि का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है, इससे यह ज्ञात होता है कि भारवि का काल माघ से पूर्व का है। बाण ने अपने ग्रन्थों में भारवि का कहीं उल्लेख नहीं किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि बाण के समय तक भारवि को प्रसिद्धि नहीं मिली थी। ऐहोल के ६३४ ई० के शिलालेख में भारवि का नाम मिलता है। इससे प्रतीत होता है कि ६३४ ई० से पूर्व तक भारवि प्रसिद्ध हो चुके थे। “अवन्तिसुन्दरी कथा” के आधार पर भारवि दक्षिण भारत के रहने वाले थे और ‘पुलकेशिन द्वितीय’ के अनुज के सभापण्डित थे, जिनका शासनकाल ६१५ ई० के आसपास था। अतः भारवि का समय भी ६०० ई० के आसपास होना चाहिए।
यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि अन्य कवियों की भाँति भारवि के समय के संबंध में भी कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती। क्योंकि न तो स्वयं भारवि ने अपनी कृतियों में कोई संकेत दिया है और न ही किसी आलोचक या अन्य कवि ने प्रामाणिक ढंग से कुछ ना है। अतः बाह्य साक्ष्यों के आधार पर भारवि का समय ६०० ई० के आसपास माना जाता है। कुछ बाह्य साक्ष्यों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है। वामन और जयादित्य द्वारा सन् ६५० ई० में तैयार की गई काशिका वृति में भारवि की किरातार्जुनीयम् में एक उद्धरण से प्रतीत ऐता है कि उस समय भारवि कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। अतः भारवि का समय ६५० ई० से पूर्व होना चाहिए।कालिदास की कविता का प्रभाव भारवि और माघ पर परिलक्षित होता है। अतः दोनों के मध्य अर्थात् ६०० ई० के आसपास का समय माना जाता है।
सम्राट हर्षवर्द्धन (६०६-६४८ ई०) के राजकवि बाणभट्ट ने अपनी रचनाओं मे भारवि का उल्लेख नहीं किया है। इससे सिद्ध होता है कि भारवि का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध में था। भारवि का समय कुछ भी रहा हो, लेकिन यह तो निर्विवाद सत्य हैकि दक्षिण भारत के निवासी भारवि विद्यापारखी, अपूर्व कार्य कौशलयुक्त तथा परम राजनीतिज्ञ थे। इसीलिए भारवि की अद्वितीय प्रखर पाण्डित्यपूर्ण प्रतिभा ने संस्कृत साहित्य को समलंकृत कर दिया है।
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