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Narad Panchratra (नारद पञ्चरात्र)

425.00

Author Ram Kumar Ray
Publisher Prachya Prakashan
Language Sanskrit Text With Hindi Translation
Edition 2012
ISBN -
Pages 523
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code RTP0104
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Description

नारद पञ्चरात्र (Narad Panchratra) सम्पूर्ण ग्रन्थ में बालकृष्ण की महिमा का अधिक विस्तार से वर्णन मिलता है। श्रीकृष्ण के माहात्म्य और उनकी पूजा के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करने के लिये इच्छुक नारद एक भविष्यवाणी से प्रेरित होकर कैलास पर्वत पर जाकर शिव से उपदेश ग्रहण करते हैं। कैलास पर्वत पर शिव के सात द्वारों से युक्त सदन में प्रवेश करने पर नारद को श्रीकृष्ण के जीवन, विशेषकर बाल्यजीवन से सम्बद्ध अनेक चित्र दिखाई पड़ते हैं जिससे पाठकों पर यह प्रभाव पड़ता है कि शिव भी श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त हैं। बाद में नारद को दिये गये उपदेशों में स्वयं शिव भी इस बात को बार-बार स्वीकार करते हैं कि उनके आराध्यदेव वास्तव में श्रीकृष्ण ही हैं।

ग्रन्थ में राधिका को स्त्रीदेवताओं में उच्चतम स्थान दिया गया है। भगवान शिव राधा के सहस्रनाम के माहात्म्य की चर्चा करते हुये इस विद्या को अपने प्राणों के समान बताते हैं और कहते हैं कि वे अपनी सम्पूर्ण शक्ति और भक्ति से इसका निरन्तर पाठ करते हैं। इतना ही नहीं, राधा-कृष्ण के भक्त वैष्णवों को भी शिव अपने प्राण के समान मानते हुये इस प्रकार कहते हैं ‘मैं उनकी रक्षा के लिये त्रिशूल धारण करता हूँ। जो हरि भक्तों से द्वेष रखते हैं उन्हीं को दण्ड देने के लिये मैं शूल धारण करता हूँ। इस प्रकार सम्पूर्ण ग्रन्थ वैष्णव धर्म के तथा उसके आदिदेव श्रीकृष्ण और राधा के माहात्म्य वर्णन से ओत-प्रोत है। फिर भी अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुये इसमें अन्य धर्मों या मतों पर एकाध स्थानों को छोड़ कर कहीं अपमानजनक प्रहार नहीं किया गया है। इसमें स्वयं शिव के ही उपदेशक होने से ऐसी क्षुद्र बातों की सम्भावना भी नहीं हो सकती थी ।

ग्रन्थ की प्राचीनता, महत्त्व और आधी शताब्दी से अधिक समय से इसकी अनुपलब्धता के कारण मैंने मूल रूप में ही इसके प्रकाशन का परामर्श अपने प्रकाशक को दिया था, परन्तु उन्होंने हिन्दी अनुवाद सहित इसके प्रकाशन का प्रस्ताव रक्खा। मैं इस ग्रन्थ को अत्यन्त क्लिष्टता, तथा किसी प्राचीन टीका की अनुपलब्धता से परिचित था अतः पहले तो साहस नहीं हुआ। मैंने कुछ अन्य विद्वानों से इसके अनुवाद का आग्रह भी किया परन्तु किसो के सामने न आने पर सर्वथा अयोग्य होते हुये भी मैंने इस कार्य को सम्पन्न किया। मैं अपनी सीमाओं से परिचित हूँ और जानता हूँ कि अनुवाद के साथ पूर्ण न्याय नहीं कर सका हूँ। कहीं-कहीं तो ग्रन्थ इतना क्लिष्ट है कि मैं हताश हो गया परन्तु न जाने किस प्रेरणा से काम आगे बढ़ता गया और अन्ततः ग्रन्थ पाठकों के सामने प्रस्तुत है।

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