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Nitya Karma Vidhi (नित्यकर्म विधि:)

51.00

Author Achary Devnarayan Sharma
Publisher Shri kashi Vishwanath Sansthan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 978-93-92989-22-3
ISBN 2023
Pages 56
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0215
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Description

नित्यकर्म विधि: (Nitya Karma Vidhi) वैदिक सनातन धर्म की परम्परा में ईश्वर को ही अखिल ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्त्ता, पालनहार एवं संहारक माना गया है। परब्रह्म परमात्मा ही ‘एकोऽहं बहुस्याम्’ की इच्छा से रजोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मा के रूप में जगत् की सृष्टि करने में प्रवृत्त होता है। वही परमेश्वर सतोगुण को स्वीकार कर विष्णुरूप में जगत् का पालन करता है तथा तमोगुण को आधार बनाकर शिव रूप में जगत् के संहार का कारण बनता है। परमात्मा सर्वसमर्थ है । उन्होंने पृथ्वी, जल आदि पञ्चमहाभूत, सूर्य-चन्द्रादि ग्रह नक्षत्र, नदी, समुद्र, पर्वत, झरने, वन, वृक्ष, लता, गुल्म, औषधियाँ, फल, पुष्प, जलचर, थलचर, नभचर आदि जीव-जगत् से समृद्ध निखिल ब्रह्माण्ड की रचना करके अपनी अद्भुत कर्तृत्व क्षमता को प्रदर्शित किया है।

वह जगपिता है। पग-पग पर हमें उनकी करुणा और कृपा का बोध होता है। हमारा कर्तव्य है कि ऐसे अकारण करुणावरुणालय परमेश्वर का स्मरण, वन्दन कर अहर्निश उनके असंख्य उपकारों के लिए कृतज्ञता ज्ञापित करें। प्रस्तुत पुस्तक के ‘प्रातः स्मरणीयाः श्लोकाः’ में इसी भावना के साथ विभिन्न देवताओं की स्तुति की गई है।

मानव जीवन दुर्लभ है। इसका उद्देश्य केवल सांसारिक विषयों का भोग नहीं बल्कि आत्मलाभ एवं भगवद्दर्शन है। अनन्त योनियों के पाशविक संस्कारों के कारण विषयों की ओर हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है किन्तु आत्मानुभूति, ईशकृपा प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक चिन्तन, भगवत्स्मरण, पूजनादि क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। हम जन्म ग्रहण करते ही देव, ऋषि और मनुष्य इन तीनों के ऋण से युक्त हो जाते हैं। नित्यकर्म के द्वारा हमें इन तीनों ऋणों से मुक्ति मिल जाती है। शास्त्रों में मनुष्य को निम्न छः कर्मों को प्रतिदिन करने का विधान किया गया है-

‘सन्ध्या स्नानं जपश्चैव देवतानां च पूजनम्।

वैश्वदेवं तथाऽऽतिथ्यं षट् कर्माणि दिने दिने’।।

परमेश्वर सत्यस्वरूप, चिद्रूप तथा आनन्द स्वरूप है। सत्य से ही धर्म की रक्षा होती है। सत्य से ही मानसिक, वाचिक पवित्रता आती है। मानसिक, वाचिक पवित्रता के साथ कायिक पवित्रता भी अनिवार्य है। इसके लिए हम दैनिक कर्म में ‘स्नान’ को महत्त्व देते हैं। इससे हमारा शरीर देवालय बन जाता है। स्नान के पश्चात् ही हमारा शरीर जप, तप, पूजा, पाठ आदि समस्त कर्मों के योग्य बनता है। लक्ष्मी, पुष्टि, आरोग्य, रूप, तेज, बल आदि की वृद्धि चाहनेवालों को प्रतिदिन स्नान करना चाहिए । स्नान सात प्रकार के बताये गये है- मन्त्रस्नान, पार्थिवस्नान, अग्निस्नान, वायव्यस्नान, दिव्यस्नान, वारुण एवं मानसिक स्नान । इनमें वारुणस्नान (जल में डुबकी लगाना या कूपादि के जल से स्नान करना) को अधिक महत्त्व प्राप्त है।

स्नानोपरान्त यज्ञोपवीत धारण, तिलक धारण द्विजातियों के लिए परम आवश्यक कर्म शास्त्रों द्वारा वर्णित है। अतः इनका समावेश भी यथास्थान किया गया है। ‘अहरहः सन्ध्यामुपासीत’ इस शास्त्रवचन के अनुसार सन्ध्या-वन्दन द्विजाति के लिए अत्यावश्यक है। रात या दिन में किये गये ज्ञाताज्ञात पाप- कर्म का विनाश त्रिकाल सन्ध्या के द्वारा हो जाता है। सन्ध्या करने से शरीर में तेजस्विता की वृद्धि, तीव्र स्मरणशक्ति एवं मानसिक एकाग्रता की वृद्धि होती है। सन्ध्या-वन्दन भी नित्यकर्म का एक अपरिहार्य अंग है।

इसके साथ पञ्चमहायज्ञों का विधान पाप विशुद्धयर्थ तथा परमात्मा की प्रसन्नता हेतु किया गया है। देवऋण, ऋषिऋण तथा पितृऋण, इन तीनों प्रकार के ऋणों से मुक्ति के लिए ‘देवर्षि पितृतर्पण’ की आवश्यकता होती है। इसके द्वारा उनकी तृप्ति के साथ ही उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट कर उनसे आशीष एवं उनकी कृपा प्राप्ति की कामना की जाती है। उन तीनों की प्रसन्नता द्वारा ही हम जीवन में सदैव उन्नति पथ की ओर अग्रसर रहते हैं। अतः ‘देवर्षिपितृतर्पण’ को नित्यकर्म का अंग मानकर उसकी विधि का वर्णन ग्रन्थ की उपादेयता में वृद्धि करता है।

पञ्चदेवों की आराधना हमारी सनातन परम्परा का अंग है। उसके बिना हमारा कोई भी धार्मिक कृत्य पूर्ण नहीं माना जाता है। पञ्चदेवों के अन्तर्गत सूर्य, विष्णु, शिव, दुर्गा एवं गणेश जी आते हैं। सूर्य हमारे प्रत्यक्ष देवता है। यही सृष्टि के पालक हैं। उनकी अकारण करुणा से सम्पूर्ण जीवजगत, वन्यजगत्, औषधिजगत् सतत् उपकृत है। सर्वव्यापक होने के कारण भगवान् विष्णु की कृपा से संसार संचालित है। शिव कल्याण के देवता हैं। शक्ति स्वरूपा दुर्गा देवताओं द्वारा भी वन्दित एवं अभिनन्दित हैं।

देवताओं पर संकट आने के बाद उन्होंने अपनी शक्ति का संचय कर जगज्जननी दुर्गा को प्रकट किया तथा अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र प्रदान कर उन्हें अपरिमित शक्ति से विभूषित किया । भगवान् गणेश विघ्नहर्त्ता, सुमंगल, सिद्धि, सन्मति, विद्या, विवेक, स‌द्विचार के प्रदाता देव हैं। उपर्युक्त पञ्चदेवों की उपासना से हमारे सभी कार्यसिद्ध होते हैं। सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। श्री, यश, वैभव की समृद्धि होती है। अतः पञ्चदेवपूजा विधान ‘नित्य कर्म विधि’ को अत्यधिक उपयोगी बनाने का कार्य करता है। अपने कल्याण के इच्छुक सभी सनातनधर्मी इस ग्रन्थ से लाभान्वित हों, यही विश्वेश एवं माता अन्नपूर्णा से प्रार्थना है। विज्ञ सुधीजन अवश्य ही इस पुस्तक का आदर करेंगे।

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