Nyay Darshan Me Anuman (न्याय दर्शन में अनुमान)
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Author | Dr. Sacchidanand Mishra |
Publisher | Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2006 |
ISBN | 81-217-0192-9 |
Pages | 204 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0383 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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न्याय दर्शन में अनुमान (Nyay Darshan Me Anuman) दर्शनसम्प्रदाय में अनुमान का महत्त्व सर्वविदित है। भारतीय दर्शनों में चार्वाक को छोड़कर कोई भी दर्शन अनुमान के प्रामाण्य का निराकरण करने में अपने को सक्षम नहीं पाता है। चार्वाक भी कुछ अंशों में अनुमान का प्रामाण्य स्वीकार ही करते हैं। जयन्त भट्ट ने चार्वाकों के एक सम्प्रदाय की सुशिक्षिततर नाम से चर्चा करते हुए कहा है कि वे ऐसे अनुमानों का प्रामाण्य निराकृत नहीं करते हैं जो कि प्रत्यक्षोत्पन्नप्रतीतिक हों। ऐसे अनुमानों का प्रामाण्य ही निराकृत करते हैं जो कि प्रत्यक्षोत्पन्नप्रतीतिक नहीं हैं। तो भारतीय दर्शनों में अनुमान का महत्त्व प्रश्नों से परे है। परन्तु न्यायवैशेषिकसम्प्रदाय ने अनुमान को जो स्थान दिया है, कोई और दर्शन अनुमान को वह स्थान नहीं दे पाया है। व्यवहार में हम कहते हैं कि प्रत्यक्षे किं प्रमाणम् प्रत्यक्ष में किस प्रमाण की आवश्यकता है ? परन्तु नैयायिक प्रत्यक्ष का प्रामाण्य भी अनुमान पर निर्भर मानता है। गङ्गेशोपाध्याय ने अनुमान का प्रामाण्य व्यवस्थापित करने के क्रम में कहा है कि अनुमानाप्रामाण्ये प्रत्यक्षस्याप्यप्रामाण्यात् अनुमान का प्रामाण्य न होने पर प्रत्यक्ष का प्रामाण्य भी सम्भव नहीं हो पायेगा।
यह बात अजीब सी लग सकती है, परन्तु नैयायिक प्रत्यक्ष के प्रामाण्य को अनुमान पर निर्भर मानते हैं। परन्तु अनुमान का प्रामाण्य उस तरह से प्रत्यक्ष पर निर्भर नहीं है। यद्यपि यह वक्तव्य अनेक सारे सवालों को जन्म देता है। सबसे अहम सवाल यह है कि इस तरह से तो प्रत्यक्ष स्वतन्त्र रूप से प्रमाण नहीं हो सकेगा। आख़िर जब वह अपने प्रामाण्य के लिए अनुमान पर निर्भर है तो वह स्वतन्त्र प्रमाण किस तरह से हो सकेगा ? नैयायिक का इस पर समाधान यही होगा कि चूँकि प्रत्यक्ष अपने विषय का ज्ञान कराने के लिए किसी अन्य प्रमाण पर आश्रित नहीं है इस कारण उसकी स्वतन्त्र प्रमाणता खण्डित नहीं होती है। यद्यपि अपने प्रामाण्य के सत्यापन के लिए उसको अनुमान के साहाय्य की अपेक्षा होती ही है। अनुमान भी व्याप्तिग्रहणादि के लिए आख़िर प्रत्यक्ष पर आश्रित होता ही है। यही कारण है कि इस अनुमानप्रधान न्यायदर्शन को अन्वीक्षा नाम से कहा गया है।
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