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Prachin Bharat Ki Arthik Sanskriti (प्राचीन भारत की आर्थिक संस्कृति)

100.00

Author Dr. Vishudhananad Pathak
Publisher Uttar Pradesh Hindi Sansthan
Language Hindi
Edition 1st edition, 2005
ISBN -
Pages 160
Cover Paper Back
Size 14 x 1 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code UPHS0047
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Description

प्राचीन भारत की आर्थिक संस्कृति (Prachin Bharat Ki Arthik Sanskriti) लगभग डेढ़ वर्षों पूर्व मैंने प्राचीन भारतीय आर्थिक इतिहास’ (६०० ई. तक) शीर्षक से अपनी एक कृति पाठकों को दी थी। उस समय मैंने वादा किया था कि प्राचीन भारतीय आर्थिक इतिहास के अन्य पक्षों को उजागर करते हुए उसकी एक पूरक कृति शीघ्र ही उनके सामने उपस्थित करूँगा। इस वादे को पूरा करते हुए ‘प्राचीन भारत की आर्थिक संस्कृति’ शीर्षक से यह रचना समर्पित है। इसमें विशेष संदर्भ ६०० ई. पश्चात् के हैं।

प्राचीन भारतीय इतिहास का काल कितना लम्बा है, वह कब से प्रारंभ होता है और कब उसका अन्त होता है, क्या उसे ‘हिन्दू काल’ कहा जा सकता है या नहीं, आदि प्रश्नों पर बड़े विवाद हैं, जिनका अन्त होता नहीं दिखायी देता। इस युग के इतिहास पर एक प्रसिद्ध पाठ्य पुस्तक विन्सेण्ट स्मिथ नामक अंग्रेज (साम्राज्यवादी विचारधारा वाले) प्रशासक और इतिहासकार ने लिखी थी- ‘अर्ली हिस्ट्री ऑफ अर्ली इण्डिया लगभग एक सौ वर्षों पूर्व। बहुतों की दृष्टि में आज भी वह काल विभाजक शीर्षक अधिकांशतः ग्राह्य प्रतीत होता है। वर्ष २००२ में प्रायः इसी शीर्षक से पेगुंइन प्रकाशन ने ‘दि पेगुइन हिस्ट्री ऑफ इण्डिया’ १३०० ई. तक’ (रोमिला थापर) ने प्रकाशित की है। किन्तु अनेक विद्वान् ६०० ई. के बाद वाले युग को पूर्व मध्यकाल’ नाम से पुकारने लगे हैं।

कुछ लोग तो इस तथाकथित पूर्वमध्ययुग को पीछे ४०० ई. तक खींच ले जाना चाहते हैं। ऐसे लोगों की दृष्टि में यदि भारतीय इतिहास के प्रारंभिक युग को ‘प्राचीन भारत’ के नाम से सुशोभित किया जाय तो वह युग भी केवल ६०० ई. पूर्व से ४०० ई. तक का ही होना चाहिए। ‘प्रगतिवादी इतिहासकारों के विशेषण से मंडित इन पण्डितों की दृष्टि में ६०० ई.पू. तक का भारतीय इतिहास तो केवल परंपरागत इतिहास है, जिसे विज्ञानपरक (साइन्टीफिक) इतिहास की संज्ञा नहीं दी जा सकती। उनकी दृष्टि में इसको इतिहास मानने वाले ‘पुनरुत्थानवादी’ ही हैं।

वास्तव में यदि हड़प्पाई संस्कृति के युग से प्रारंभ कर दक्षिण भारत की पल्लव-चोलकालीन युग तक के समस्त भारतीय इतिहास की प्रवृत्ति और प्रकृति को देखा जाय, तो उसमें न तो कोई व्यवधान दिखायी देता है और न कोई किसी विशेष प्रकार का अन्तर। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और व्यापारिक, चाहे जिस किसी क्षेत्र में देखें, एक सतत गतिमान निरतरता दिखायी देती है।

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