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Prarambhik Rasa Shastra (प्रारम्भिक रसशास्त्र)

166.00

Author Prof. Siddhinandan Mishra
Publisher Chaukhamba Orientalia
Language Hindi
Edition 2021
ISBN 978-81-763726-19
Pages 316
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CO0014
Other

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Description

प्रारम्भिक रसशास्त्र (Prarambhik Rasa Shastra) आयुर्वेद में रसशास्त्र का विकास प्रायः वैसी ही घटना है जैसी भारतीय संस्कृति में बौद्ध धर्म का प्रादुर्भाव । यद्यपि आयुर्वेद की प्राचीन संहिताओं में पार्थिव (खनिज) द्रव्यों का प्रयोग मिलता है तथापि अपेक्षाकृत औद्भिद द्रव्यों का ही बाहुल्य है। पारद का बाह्य प्रयोग ही सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है। इन्हीं बीजभूत तथ्यों को लेकर रसशास्त्र की नींव डाली गई जिसे मध्यकालीन आचार्यों ने एक विशाल अट्टालिका के रूप में विकसित किया। यह एक प्रकार से प्राचीन मान्यताओं की प्रतिक्रिया में खड़ा हुआ था ठीक वैसे ही जैसे भगवान् बुद्ध ने भारतीय संस्कृति के अहिंसा, करुणा आदि-तत्त्वों को लेकर प्राचीन मान्यताओं को झकझोर कर एक नवीन धर्म को प्रतिष्ठित किया। यही कारण है कि रसशास्त्र तान्त्रिकों के संरक्षण में फूला-फला । रसशास्त्री आचार्य एक ओर जहाँ पारद से स्वर्ण बनाने, अनेक तान्त्रिक क्रियायें करने में लगे थे वहाँ दूसरी ओर वे उसके अनेक कॅल्पों के द्वारा मानव शरीर को निरोग, अजर-अमर बनाने के प्रयत्न में लीन थे। शनैः शनैः इसने अपने चमत्कारों से समस्त भारतीय समाज को प्रभावित किया और चिकित्सक भी इसके वशीभूत हो गये। चिकित्सा में अब रसौषधों की ही प्रधानता होने लगी और रस-चिकित्सा दैवी चिकित्सा मानी जाने लगी । चिकित्साक्षेत्र में रसशास्त्र का आगमन ऐसी ही घटना है जैसी आधुनिक चिकित्सा में ऐण्टीबायटिक का अवतरण। रसौषध वस्तुतः आयुर्वेद में एण्टीबायटिक के समान हैं।

किन्तु रसशास्त्र का प्रारम्भ तथा संरक्षण जिस कठोर साधना में हुआा वह सबके वश की बात नहीं। वास्तव में यह एक दुधारी तलवार के समान है जो सम्यक् संस्कृत एवं उपयुक्त न होने पर रोगी के लिए घातक हो जाता है। मध्यकालीन तान्त्रिक युग के बाद यह साधना क्रमशः शिथिल होती गई । आधुनिक काल में आयुर्वेद के चिकित्सक रसौषधों का प्रयोग तो करते रहे, किन्तु उनके निर्माण में आलस्य करने लगे और वह उनके लिए सम्भव भी न था। फलतः इस परिस्थिति से लाभ उठाने वाले अनेक व्यवसायी औषध निर्माता इस क्षेत्र में कूद पड़े। पूरी सावधानी न बरतने के कारण इनका लाभ जाता रहा तथा हानि की भी आशंका बनी रही। वर्तमान काल में खनिज द्रव्यों की महर्घता के कारण भी भारत की निर्धन जनता के लिये इनका सेवन कठिन हो गया। प्रारम्भ से ही रसशास्त्र आयुर्वेद महाविद्यालयों में पढ़ाया जाता रहा गौर आज भी इसका स्थान अक्षुण्ण है। अभी हाल में केन्द्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद् ने समस्त भारत के लिये आयुर्वेद का एक पाठ्यक्रम बनाया है जिसमें प्राचीन के साथ-साथ आधुनिक रसशास्त्र का शिक्षण भी अपेक्षित है। छात्रों के लिये ऐसे पाठ्यग्रन्थों की आवश्यकता को देखकर ही इस ग्रन्थ की रचना हुई है।

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