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Rasarnava Sudhakar (रसार्णवसुधाकरः)

319.00

Author Dr. Jamuna Pathak
Publisher Chaukhambha Sanskrit Series Office
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2004
ISBN 81-7080-125-7
Pages 480
Cover Hard Cover
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0723
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Description

रसार्णवसुधाकरः (Rasarnava Sudhakar) रसार्णवसुधाकर शिङ्गभूपालकृत नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। प्रायः कारिका रूप में उपनिबद्ध रजक, रसिक और भावक अभिधान वाले तीन विलासों में विभक्त है। विषयवस्तु की स्पष्टता के लिए इसमें थोड़ी बहुत गद्य विधा का भी प्रयोग मिलता है। इस ग्रन्थ में संस्कृतनाट्यों से सम्बन्धित नाट्यकला विषयक सम्पूर्ण तथ्यों का परिनिष्ठता और क्रमबद्ध साङ्गोपाङ्ग विवेचन हुआ है। प्राचीन आचार्यों ने नाट्यविषयक तीन पक्षों-रचनात्मकता, रसात्मकता और प्रायोगिता का प्रतिपादन किया है। रसार्णवसुधाकर में रचनात्मक स्वरूप के अन्तर्गत नाट्य के दश भेंदों का स्वरूप, कथावस्तु तथा उसके भेद-प्रभेदों, सन्धियों, सन्ध्यङ्गों, अर्थप्रकृतियों, छत्तीस भूषणों, इक्कीस सन्ध्यन्तरों का विस्तृत तथा शास्त्रीय निरूपण किया गया है। प्रतिपादित लक्षणों के स्पष्टीकरण के लिए ग्रन्थकार ने प्रचुर उदाहरणों को प्रस्तुत किया है जब कि अन्य नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थकर्ता एक-दो उदाहरण देकर ही सन्तुष्ट हो गये है।

इसके उदाहरण संस्कृत साहित्य के विशाल क्षेत्र से लिये गये हैं। इसमे कतिपय उदाहरण ग्रन्थकार द्वारा रचित हैं। जिसमें कुछ कुवलयावली और कन्दर्पसम्भव से उद्धृत हैं तथा कुछ मुक्तक है। रसार्णवसुधाकर में यद्यपि पूर्ववर्ती आचार्यों परम्परा का निर्वाह किया गया है फिर भी उसमें समुचित परिवर्तन, परिवर्द्धन और मौलिकता का सन्निवेश है। नाट्यकला की परिकल्पना आचार्यों द्वारा रसोद्बोधन के लिए की गयी थी। इस प्रकार रस ही नाट्य का जीवनधायक तत्त्व है। वस्तुतः नाट्य का परमलक्ष्य दर्शकों तथा पाठकों को अनुरञ्जित करना है। ‘विभावानुभावव्यभिचारियोगाद्रसत्रिष्पत्ति’ के अनुसार विभाव, अनुभाव और व्यभिचारियों के योग से रस की निष्पत्ति होती है। रसार्णसुधाकर में विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव इन तीन रस के अभिधायक तत्त्वों का विस्तृत और परस्परविरोधी मान्यताओं में औचित्यपूर्ण मान्यता को निःसङ्कोच स्वीकार किया गया है और असङ्गत मतों की समालोचना करते हुए अस्वीकार कर दिया गया है।

रसार्णवसुधाकर में नाट्यकला के रचनात्मक और रसात्मक पक्ष का जितना विस्तृत विवेचन हुआ है उतना प्रायोगिक पक्ष का नहीं, क्योंकि इसमेंप्रायोगिक पक्ष-अभिनय, संवाद, वेशभूषा, रङ्गमञ्च-सज्जा इत्यादि का यत्रतत्र नगण्य सङ्केत मात्र प्राप्त होता है। फिर भी शिङ्गभूपाल द्वारा किया गया नाट्यकला का सन्तुलित, विस्तृत, तात्त्विक और स्पष्ट निरूपण अपने आप में महत्त्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ से शिङ्गभूपाल की क्रमवद्ध और सूक्ष्म विवेचन करने की अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है। समालोचनात्मक स्थलों पर पद्य और गद्य दोनों विधाओं का प्रयोग करके पतिपाद्य विषय को स्पष्ट बना दिया गया है। यह ग्रन्थ परवतों नाट्यशास्त्रकारों और नाट्यकारों के लिए प्रेरणादायक है। ऐसे महत्त्वपूर्ण नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थ की अद्यावधि हिन्दी नहीं हो सकी थो जिससे हिन्दी भाषा के माध्यम से संस्कृत के अध्येताओं को कठिनाई का सामना करना पड़ता था। इसी अभाव की पूर्ति हेतु यह हिन्दी संस्करण तैयार किया गया है। इससे यदि अध्येताओं का थोड़ा भी लाभ हुआ तो मैं परिश्रम को सार्थक समझेंगा। स्खलन मानव स्वभाव है, त्रुटियाँ सम्भावित है।

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