Ratija Roga Shastra Set of 2 Vols. (रतिज रोग शास्त्र 2 भागो में)
₹240.00
Author | Shiva Kumar Shastri |
Publisher | Choukhambha Orientalia |
Language | Hindi |
Edition | 2nd Edition, 2020 |
ISBN | 978-81-7637-295-4 |
Pages | 520 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h ) |
Weight | |
Item Code | CO0018 |
Other | Dispatch in 1-3 Days |
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रतिज रोग शास्त्र 2 भागो में (Ratija Roga Shastra Set of 2 Vols.) धर्मशास्त्रों एवं सर्व आप्तपुरुषों द्वारा ब्रह्मचर्य और संयम की महत्ता एवं नैतिक आवश्यकता का बोध कराने के साथ ही प्रत्येक मानव को पुरुषत्व- शक्ति सम्पन्न होकर गृहस्थाश्रम में सन्तानोत्पत्ति का भी स्पष्ट आदेश दिया गया है जिससे जीवन के तीन ऋणों में से एक ऋण की पूर्ति सन्तानोत्पत्ति तथा उसके सुपालन-पोषण के पश्चात् उसे सुखमर्थ, सुशिक्षित और आत्मनिर्भर बनाकर मानव एक ऋण से मुक्त हो सके, जिसकी धर्मशास्त्रों में संज्ञा पितृऋण से दी जाती है।
साथ ही स्वजीवन में मानव द्वारा किये गए उसके अपने कार्यो की पूर्णता हेतु उसे अपने पश्चात् अपना उत्तराधिकारी छोड़ना भी तो लोकहित तथा स्वहित के लिए अभीष्ट होता है। तथा संतानोत्पत्ति में असमर्थ पुरुष को नपुंसक कहकर प्रत्येक जन उसका उपहास करने लग जाता है। ऐसी दशा में जिन कारणों (अर्थात् रोगों आदि) के द्वारा पुरुषत्वशक्ति में न्यूनता अथवा नष्ट होना सम्भव हो सके, उनका ज्ञान करना पुंसत्व की रक्षा करना तथा नपुंसकत्व आ जाने पर उसके निवारण के लिए कटिबद्ध होना भी परम आवश्यक हो जाता है। वस्तुतः संतानहीन व्यक्ति उस अभागे वृक्ष के समान है जो फलों के अभाव में संसार के प्राणियों के लिए अनुपयोगी माना जाता है। इसी हेतु शास्त्रों में भी निम्न उक्ति पाई जाती है:-
अङ्गादङ्गात् सम्भवसि, हृद्याधि जायसे ।
आत्मा व पुत्र नामासि, सञ्जीव शरदः शतम् ।।
ऐसा ही आयुर्वेद शास्त्र में कहा है कि पति और पत्नी के समस्त धातुओं के सार शुक्र एवं शोणित में परिणत होकर गर्भ की सृष्टि करते हैं। इसी कारण प्रमेहादि पीड़ित और कुष्ठ ग्रस्त माता-पिता की सन्तान को भी उक्त औपसर्गिक रोग क्रमशः वंशानुगत रूप से प्राप्त होते रहते हैं। अतएव रतिजन्य रोगों की जानकारी और उन्हें दूर करने हेतु अचूक प्रयोगों का ज्ञान प्रत्येक चिकित्सक तथा सर्व साधारण जन के लिए भी नितान्त आवश्यक है। इसी विचार से प्रेरित होकर मुझे रतिजन्य रोगों के निदान तथा उनको निर्मूल करने हेतु विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों का दिग्दर्शन कराने के लिए एक पृथक् पुस्तक सरल भाषा में लिखना अभीष्ट हुआ है।
यद्यपि इस विषय पर विद्वान् बन्धुओं द्वारा लिखे गये अनेक उत्कृष्ट ग्रन्य उपलब्ध हैं, किन्तु मैंने इसे इतनी सरल भाषा में लिखने का प्रयास किया है कि साधारण अक्षर ज्ञान वाले पाठक भी पुस्तक से अपना हित साधन कर सकेंगे । विभिन्न चिकित्सापद्धतियों में समन्वयात्मक दृष्टिकोण अपनाते हुए उक्त विषय पर स्वतन्त्र ग्रन्थ अति सरल भाषा में हो, इसकी आवश्यकता में अपने चिकित्सा काल में अधिक समय से अनुभव करता रहा हूँ। इस महती आवश्यकता की पूति में मेरी यह पुस्तक सफल सिद्ध हो सकेगी, ऐसी मेरी धारणा है। पुस्तक की रचना में जिन ग्रन्यों एवं माननीय विद्वान् बन्धुओं द्वारा मुझे सह्योग मिला है, उनका मैं अति उपकृत है तथा पुस्तक में दो शब्द लिखने के लिए अध्यक्ष, अखिल भारतवर्षीय आयुर्वेद महासम्मेलन, श्री पं० शिवशर्मा वैद्यरत्न, आयुर्वेदचकवतीं, संसद् सदस्य का भी में हृदय से बाभारी हूँ।
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