Rigved Pratishakhya (ऋग्वेद प्रातिशाख्य)
₹175.00
Author | Dr. Vrajbihari Chaubey |
Publisher | Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | - |
ISBN | 978-81-87618382 |
Pages | 345 |
Cover | Paper Back |
Size | 12 x 2 x 18 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0113 |
Other | ऋग्वेद प्रातिशाख्य (1-4 पटल) हिंदी व्याख्या सहित |
9 in stock (can be backordered)
CompareDescription
ऋग्वेद प्रातिशाख्य (Rigved Pratishakhya) यह ऋग्वेद का एकमात्र उपलब्ध प्रातिशाख्य है। इसका सम्बन्ध ऋग्वेद की किसी एक शाखा से है या अनेक शाखाश्रों से, और यदि एक शाखा से है तो किस शाखा से, और यदि अनेक शाखाओं से है तो किन-किन शाखाओं से, यह बताना अत्यन्त कठिन है। इसका रचयिता आचार्य शौनक को माना जाता है, जो स्वयं शैशिरीय शाखा का अनुयायी था । ऋग्वेद-प्रातिशाख्य के उपोद्घात में शौनक ने प्रतिज्ञा की है कि वह शैशिरीय शाखा के उच्चारण- सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान के लिये इस प्रातिशाख्य-शास्त्र का कथन करेगा । इससे यह बात प्रतीत होती है कि वर्तमान ऋग्वेद-प्रातिशाख्य शैशिरीय शाखा का है, यद्यपि ऋ० प्रा० में कहीं भी शिशिर का उल्लेख किसी भी सन्दर्भ में नहीं मिलता।
शैशिरीय शाखा शाकलशाखा के श्रन्तर्गत एक उपशाखा है और इसकी संहिता उपलब्ध नहीं है, इसलिये वर्तमान ऋग्वेद-प्रातिशाख्य को शाकल शाखा का माना जाता है। इसीलिये मैक्समूलर उसको ‘शाकल-प्रातिशाख्य’ के नाम से पुकारता है, ‘शैशिरीय-प्रातिशाख्य’ के नाम से नहीं, यद्यपि वह शौनक की अनुक्रमणी की तरह इसके शैशिरीय शाखा का अनुसरण करने का उल्लेख करता है। प्रायः यह बात देखी जाती है कि जिस शाखा का अन्य हो उसमें शाखाकार के प्रति आदर का भाव दिखाई पड़ता है और उसके मत को श्रादर के साथ प्रामाणिक रूप में उद्धृत किया जाता है । किन्तु अपने प्रातिशाख्य में शौनक द्वारा दिये गये नियम शाकलों के सामान्य मत का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसमें सन्देह है । शोनक शाकलों के मत को अपने मत से भिन्न उद्धृत करता है और उनके मतों को उसी प्रकार प्रस्तुत करता है जैसा अन्य आचायों के । ऋ० प्रा० १.६४ में वह अपने आचार्य के पादावसान में आठ समानाक्षरों के अनुनासिक- सम्बन्धी नियम का शाकलों द्वारा श्रद्धावश पालन करने का उल्लेख करता है। यहां शौनक अपने किस गुरु को उद्धृत करता है यह बताना कठिन है। किन्तु मैक्समूलर के अनुसार वह वही है जो ८० प्रा० १.५१ में वेदमित्र के रूप में, ऋ० प्रा० ४. ४ में शाकल्यपिता के नाम से तथा ऋ० प्रा० २. ८१ में स्थविर शाकल्य के नाम से उधृत है। यह बात उल्लेखनीय है कि ऋ० प्रा० २. ८१ में स्थविर शाकल्य के नाम से जिस उच्चारण-सम्बन्धी नियम का उल्लेख किया गया है उस मत से शौनक स्वयं सहमत नहीं। इससे यह बात प्रमाणित होती है कि शौनक शाकल्य या शाकल्यपिता के मत. को मानने के लिये बाध्य नहीं ।
वस्तुतः ऋग्वेद का कोई ऐसा हस्तलेख या ग्रन्थ नहीं जिसमें ऋ० प्रा० के सम्पूर्ण नियमों का निष्ठापूर्वक पालन किया गया हो । इसका कारण ऐसा प्रतीत होता है कि प्रातिशाख्यों के नियम लिखित साहित्य के लिये नहीं बने थे, विद्याथियों के उपयोग के लिये बनाये गये थे जिन्हें वेद की संहिता को मौखिक रूप से याद करना पड़ता था और अपने दैनिक कर्तव्य के रूप में उसका स्वाध्याय में उच्चारण करना पड़ता था। चूंकि शौनक शाकलों का ही एक सदस्य था, इसलिये उसके प्रातिशाख्य को शाकल- प्रातिशाख्य कहा जा सकता है, किन्तु सही रूप में इसे शाकल- प्रातिशाख्यों में से एक माना जाना चाहिये जो शौनक के शिष्यों द्वारा सुरक्षित रखा गया । तैत्तिरीय-प्रातिशाख्य के वैदिकाभरण नामक भाष्य में गार्ग्यगोपाल यज्वा ने ऋग्वेदप्रातिशाख्य को शाकल और वाष्कल दोनों का सामूहिक प्रातिशाख्य माना है। ऐसा भी माना जाता है कि शौनक से पूर्व शाकल तथा बाष्कल शाखायें अलग थीं, शौनक ने दोनों को एक में मिलाया और दोनों के लिये एक प्रातिशाख्य का निर्माण किया । ऋग्वेद-प्रातिशाख्य के एक हस्तलेख (संख्या ५९, स्टाट्स विब्ल्योथिका, मुनिख) में इसे ‘आश्वलायनपार्षद- प्रातिशाख्य’ के नाम से उधृत किया गया है ।
Reviews
There are no reviews yet.