Samudrik Rahasya (सामुद्रिकरहस्य)
₹120.00
Author | Dr. Deviprasad Tripathi |
Publisher | Bharatiya Vidya Sansthan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2001 |
ISBN | 81-87415-23-1 |
Pages | 126 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | BVS0026 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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सामुद्रिकरहस्य (Samudrik Rahasya)
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्य जगत्यां जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ।।
इसी आधार पर “सर्व खल्विदं ब्रह्म” सिद्धान्त स्थापित हुआ। सर्वसाधारण मानता है कि जिसमें आत्मा है वह चेतन है तथा जिसमें आत्मा नहीं है वह जड़ है परन्तु तात्त्विक दृष्टि से विचार करें तो यह मान्यता एक भ्रान्त धारणा है। आत्मसत्ता एवं आत्मा का अभाव जड़ चेतन का विभाजक नहीं है क्योंकि आत्मा तो जड़ में भी है और चेतन में भी है। इस वर्ग मेद का विभाजक ‘ऐन्द्रियभाव है। यथा सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं निरिन्द्रियमचेतनम् जिन पदार्थों में इन्द्रियों विकसित होती है और कार्य करती हैं उन्हे हम चेतन कहते हैं तथा जिनमें इन्द्रियाँ विकसित नहीं होती हैं उन्हें अचेतन कहते हैं। वास्तविक रूप से देखा जाय तो इस समग्र सृष्टि में अचेतन कुछ भी नहीं है क्योंकि यदि सृजन है तो कुछ न कुछ अंशों में वह अवश्य चेतन है परन्तु हमारी अपेक्षा वह न्यूनातिन्यून जान पड़ता है।
विचार करें तो ज्ञात होता है कि मनुष्य में जो क्रिया शक्ति है वह वृक्षों में नहीं फिर भी वृक्षों में वृद्धि होती है अर्थात् वे बढ़ते है, उनमें अंकुर पैदा होते हैं, पुष्प खिलते हैं, फल उत्पन्न होते हैं, वृक्ष बड़े होते हैं, पुराने होते हैं और अन्त में सूख कर नष्ट हो जाते हैं अर्थात् महाभूतों में विलीन हो जाते हैं। सृष्टि में प्रतिक्षण कुछ न कुछ क्रिया होती रहती है। इसी प्रकार भूगर्भ विज्ञान वेत्ता बताते हैं कि यह पाषाण दस हजार वर्ष पुराना है यह दस लाख वर्ष पुराना है आदि। पाषाणों में जो क्रिया होती है वह बहुत धीरे-धीरे होती है जिसे वैज्ञानिकों ने अनुभव किया है। यही भाव महर्षि व्यास ने व्यक्त किया कि वह गूढ़ात्मा सब में प्रतिष्ठित है परन्तु पञ्चमहाभूतों की अपेक्षा मनुष्यों में क्रियाविशेष (चेतना) इन्द्रियाँ, मन एवं प्राण पूर्ण विकसित है।
“यत्पिण्डे तद् ब्रह्माण्डे” अर्थात् जो इस मानव देह में विद्यमान है वही ब्रह्माण्ड में भी है, अभिप्राय उस विराट पुरुष के शरीर में है जैसे किसी फल में कई बीज होते हैं और एक बीज में महाकाय वृक्ष सूक्ष्म रूप से विद्यमान होता है उसी प्रकार मायावच्छिन्न नर शरीर में उल अखिल ब्रह्माण्ड नायक का कल्पनातीत सूक्ष्म रूप है। उसी के प्रकाश से चेतना क्रिया आदि का उद्गम हुआ है। इस मानव शरीर के अधिष्ठाता वही हैं जो देव लोक में देवों के अधिष्ठाता है। अङ्ग एवं उपाङ्गों का समुदाय ही शरीर कहलाता है। शरीर की हर प्रकार की गति-विधि का विचार करना ही सम्प्रति सामुद्रिक शास्त्र या अङ्ग-विद्या कहलाती है। समग्र सृजन को सम्यक् प्रकार से समझने में हमको अनुमान एवं उपमानादि प्रमाणों का सहारा लेना पड़ता है। बिना इन सहारों के हम कुछ भी नहीं जान सकते हैं। पञ्चज्ञानेन्द्रिय ज्ञान तो मात्र प्रत्यक्ष का ही भान कराता है। इससे हम सब कुछ समझ जाँय असम्भव ही नहीं एक हास्यास्पद बात भी होगी। प्रत्यक्ष फल के कारणों का ज्ञान हमको अनुमान-उपमानों के द्वारा ही मिलता है। इस जीवन को व्यवस्थित करने में कारणों के ज्ञान से मानव को जितनी सहायता मिलती है उतनी मात्र कार्य से नहीं।
किसी भी कार्य के पीछे कोई कारण अवश्य विद्यमान रहता है। कार्य-कारण भाव भूत-भविष्य दोनों का संकेत हमको प्रदान करता है। कार्यकारण भाव से ही हम सृजनात्मक एवं प्रलयात्मक दोनों स्थितियों पर विचार करते हैं और उसको जानते है अथवा जानने का प्रयास करते हैं। समष्टिगत को समझने के लिए व्यष्टि का ज्ञान आवश्यक है। समष्टिगत के अन्तर्गत समाहित व्यष्टियों का यदि आधे से अधिक ज्ञान हो जाय तो हम समष्टि को अधिक से अधिक जान सकते हैं। सम्पूर्ण जीवन को समझने के लिए उसके व्यष्टि रूप अङ्गों को समझना आवश्यक ही नहीं परमावश्यक है। अङ्गों के आकार प्रकार के द्वारा शरीर का ज्ञान किया जा सकता है। शरीर का ज्ञान करना मात्र एक आकृति ज्ञान है परन्तु किसी भी आकृति को समझने के लिए वराहमिहिर ने कहा है कि निम्न बिन्दुओं को यदि हम समझते हैं या समझने का प्रयास करते हैं तो हम किसी भी आकृति को समझने में अधिकाधिक सफल हो सकते हैं।
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