Sasya Veda (सस्यवेद:)
₹166.00
Author | Dr. Shri Krishn Jugnu |
Publisher | Chaukhamba Krishnadas Academy |
Language | Sanskrit Text and Hindi Translation |
Edition | 2018 |
ISBN | 978-81-218-0415-8 |
Pages | 136 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSP0834 |
Other | Dispatched in 3 days |
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सस्यवेद: (Sasya Veda) सस्य अथवा धान्य के उत्पादन की विद्या ‘सस्यवेद’ है। इसमें खेती-किसानी की आवश्यक बातों पर सम्यक् विचार मिलते हैं। पाराशर का मत है कि सभी प्रकार के बीजों की बुवाई से कृषि समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाली होती है- वापयेत् सर्वबीजानि सा कृषिः सर्वकामिका ॥ सुक्षेत्रे वापयेद् बीजं सुपात्रे निक्षिपेद्धनम् । (पाराशरस्मृति 1, 64-65) कृषि भूमि से जुड़ा उद्योग है और वैदिक काल से ही इसकी सफलता के लिए भूमिचयन से लेकर धान्योत्पत्ति के योग्य खेत की संरचना, कालक्रमानुसार उत्तम बीजों के चयन, बीजोपचार, बीजवपन और अंकुरण से लेकर फसल के पकने तथा भण्डारण तक पर विचार किया जाता रहा है। भूमि कृषि का आधार है तो बीज इसका कारणभूत है तथा जलवायु और ऋतुसम्मत अनेकविध क्रियाओं के फलस्वरूप कृषि की सिद्ध होती है- यस्यामन्नं व्रीहियवौ यस्या इमां पञ्चकृष्टयः । भूम्यै पर्जन्य पत्न्यै नमोऽस्तु वर्षमेदसे ॥ अथर्ववेद 12, 1, 42) वेदवचनों से विदित होता है कि कृषि को पर्याप्त महत्व देय है। ऋग्वेद में क्षेत्रपति, पर्जन्य, पृथ्वी, गो, आपः अक्ष, नदी, विश्वेदेवा और आरण्यानि सूक्तों में कृषि की महत्ता परिलक्षित होती है तो यह भी कहा गया है कि ईश्वर ने सभी मनुष्यों को कृषि के लिए उत्पन्न किया है, अतः सभी श्रेष्ठ धान्योत्पादन के लिए कृषि करें – सुसस्याः कृषीस्कृषि। (यजुर्वेद 4, 10)
नन्दिपुराण और देवीपुराण जैसे उप पुराणों में सस्यवेद का प्रमाण मिलता है। इसे प्राचीनकालीन चौदह विद्याओं से अवान्तर विद्या माना गया है और उसकी साधना महाफलकारी बताई गई है- सस्यविया च वितता एता विद्या महाफलाः । धर्माधर्मप्रणयिनी धर्माधर्मप्रसाधिका ॥ (कृत्यकल्पतरु दानकाण्ड, पृष्ठ 208) यूं तो वर्णाश्रमानुसार कृषि को वैश्यवर्गीय कर्म कहा गया है लेकिन आपद्धर्म के रूप में यह अन्यों के लिए भी विहित है क्योंकि बिना कृषि के जीविका सम्भव नहीं होती है।
इस कृषि की शास्त्रीय तकनीक का साक्ष्य है- संस्यवेद। कृत्यकल्पतरुकार भट्ट लक्ष्मीधर और चतुर्व्वग्र्गचिन्तामणिकार पं. हेमाद्रि सहित विधानपारिजातकार अनन्तभट्ट ने इस विद्या की पर्याप्त प्रशंसा की है। इन्हीं सन्दर्भों से प्रेरित होकर मैंने लगभग एक दशक तक सस्यवेद के मूलपाठ की खोज पर अपना ध्यान आकर्षित किया। देश-विदेश के ग्रन्थ भण्डारों के सूचीपत्रों को आँखें गाड़-गाड़कर देखा और परखा लेकिन यह ग्रन्थ सुनियोजित पाण्डुलिपि के रूप में अनुपलब्ध रहा। उक्त निबन्धकारों के समय तक यह ग्रन्थ रूप में उपलब्ध रहा हो, कहा नहीं जा सकता क्योंकि बाद में किसी भी ग्रन्थ में इस ग्रन्थ नाम से कोई उद्धरण भी नहीं मिलता। सम्भवतः यह किसी पुस्तकालय अथवा संग्रह में रहा हो जिसे बाद में फूंक दिया गया हो या फिर दीमक चट कर गई हों। इस खोजबीन में हालांकि मुझे ‘बृहत्पराशरी’ जैसी कृषि विषयक पाण्डुलिपि का पता चला। इसी बीच मैंने ‘काश्यपीय कृषिपद्धति’, ‘वृक्षायुर्वेद’, ‘विश्ववल्लभ’ आदि कृषि विषयक ग्रन्थों का सम्पादन-अनुवाद भी किया लेकिन सस्यवेद शेष रहा। इसी कारण इस सम्बन्ध में उपलब्ध विषयों का एकत्रित करने का निश्चय किया। प्रस्तुत ‘सस्यवेद’ ग्रन्थ सस्योपयोगी समस्त विषयों का संग्रह है।
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