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Satsang Ka Prashad (सत्संग का प्रसाद)

10.00

Author Swami Ramsukhadas
Publisher Gita Press, Gorakhapur
Language Hindi
Edition -
ISBN -
Pages 72
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code GP0153
Other Code - 426

 

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Description

सत्संग का प्रसाद (Satsang Ka Prashad) किसी की बातका खण्डन करनेसे आपसमें संघर्ष बढ़ता है। हम दूसरेके मतका खण्डन करेंगे तो वह हमारे मतका खण्डन करेगा, जिससे कलह ही बढ़ेगा। अतः हो सके तो दूसरेको शान्तिपूर्वक अपनी बातका, अपने सिद्धान्तका तात्पर्य बताओ और यदि वह सुनना नहीं चाहे तो चुप हो जाओ। अपनी हार भले ही मान लो, पर संघर्ष मत करो।

सरदारशहरके ‘टीचर ट्रेनिंग कॉलेज’ की एक बात है। वहाँ एक सज्जनने कहा कि देशका जितना नुकसान हुआ है, वह सब ईश्वरवादसे, आस्तिकवादसे ही हुआ है। मैं चुप रहा तो उन्होंने कहा कि ‘बोलो !’ तो मैंने कहा कि ‘आपने अपना सिद्धान्त कह दिया। आपको मेरा सिद्धान्त मान्य नहीं है और मुझे भी आपका सिद्धान्त मान्य नहीं है। अब बोलनेकी जगह ही नहीं है और जरूरत भी नहीं है।’ इस तरह हमारेपर कोई आक्रमण कर दे तो सह लो। सहनेसे, निर्विकार रहनेसे अपना मत, सिद्धान्त मजबूत होता है, संघर्षसे नहीं। निर्विकार रहनेमें जो शक्ति है, वह और किसी उपायमें नहीं है। आपसे अपने इष्टकी निन्दा न सही जाय तो वहाँसे उठकर चले जाओ; कान मूँद लो, सुनो मत। कारण कि ऐसे आदमियोंको भली बात भी बुरी लगती है। विभीषणने रावणको अच्छी सलाह दी, पर रावणने विभीषणको लात मारी! अतः शान्त रहना बहुत अच्छा है। अपनेसे जो सहा नहीं जाता, यह अपनी कमजोरी है। यह तो ठाकुरजी लीला करते हैं आपको पक्का बनानेके लिये ! यदि सहा न जाता हो तो भगवान्से प्रार्थना करो कि ‘ हे नाथ! हम सह नहीं सकते। कृपा करो, सहनेकी शक्ति दो।

 

 

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