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Shree Arvind Ka Sanskrit Darshan (श्री अरविन्द का संस्कृत दर्शन)

140.00

Author Umesh Chandra Dube
Publisher Bharatiya Vidya Prakashan
Language Hindi
Edition 1993
ISBN -
Pages 224
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0308
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Description

श्री अरविन्द का संस्कृत दर्शन (Shree Arvind Ka Sanskrit Darshan) धर्म, दर्शन, काव्य, कला और समाज सभी मिलकर किसी संस्कृति की आत्मा, मन और देह को गठित करते हैं। इनमें धर्म और दर्शन का भारतीय संस्कृति में प्राबल्य है, या इसे यूं कह सकते हैं कि इनकी धुरी पर ही भारतीय संस्कृति अग्र सर हुई है। वेद, उपनिषद् आदि से अविच्छिन्न रूप से चले आ रहे भारतीय दर्शन (वेद पर आधारित दर्शन) का लक्ष्य आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना, उसका अनुभव करना है और इस प्रकार आध्यात्मिक जोवन का यचार्य मार्ग उपलब्ध करता है। इतना ही नहीं यह आध्यात्मिकता चिन्तन और जीवन के प्रत्येक पक्ष को आव्यामित एवं अनुप्राणित किये हुए है। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि यह कला, साहित्य, धार्मिक अनुष्ठान और सामाजिक विचारों में व्याप्त है। यही कारण है कि वेद एवं उपनिषद् पर आधारित यहाँ के धर्म (वैदिक धर्म/ सनातन धर्म), साहित्य और कला ने इस आध्यात्मिकता को केवल उच्च दार्शनिक चिन्तकों के लिये ही सुरक्षित नहीं रखा अपितु इसे जन-जन में व्याप्त कर दिया। यहाँ धर्म पार्थिव मानवता के धर्म तक परिसीमित नहीं है। ‘पुनर्जन्म’ के सिद्धान्त ने इस संस्कृति को कर्म की अवश्यम्भावी परिणति की ओर दृढ़ता पूर्वक ध्यान देने पर बल दिया है, जिससे कर्म करने की प्रेरणा ही नहीं मिलती अपितु उदात्त कर्म करने का आदर्श भी प्रस्तुत होता है।

श्री अरविन्द के अनुसार भारतीय संस्कृति की महानता इस बात में है कि इसने मनुष्य की सान्त चेतना के अधिकाधिक विकास पर बल दिया है। उसने इस जीवन को ही सर्वस्व मानकर विचार नहीं किया है अपितु इस जीवन के परे भी देखने की चेष्टा की है। उसका आदर्श है असत् से सत् की ओर गमन, अन्धकार से प्रकाश की ओर गमन तथा मृत्यु से अमरत्व की ओर गमन। संक्षेप में उसका लक्ष्य ईश्वर, सुपूर्णता, सत्य, आनन्द, अमृतत्व की प्राप्ति के रूप में प्रकट हुआ है। इस प्रकार मानव पूर्णता की पराकाष्ठा मरणशील मनुष्यत्व नहीं अपितु अमरता, स्व- तंत्रता और दिव्यता भी उसकी अवाप्ति की सीमाओं में ही हैं और इस अन्तर्दृष्टि ने जीवन विषयक यहाँ के सम्पूर्ण विचार को अनुप्राणित किया है। भारतीय संस्कृति ने बात्मा को ही मनुष्य की सत्ता का सत्यस्वरूप स्वीकार किया है और मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य अध्यात्म-चेतना की प्राप्ति को ही माना है। यह लक्ष्य सिर्फ आदर्श के रूप में ही नहीं रहा अपितु इस लक्ष्य को सम्मुख रख कर वर्णाश्रम व्यवस्था के माध्यम से सम्पूर्ण सामाजिक ढाँचे को आध्यात्मिकता की ओर मोड़ देने का प्रवास भी किया गया। यही कारण है कि भारत में धर्म जीवन से भिन्न कोई तत्त्व नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के अनुसार धर्म हमारे जीवन के सभी अंगों के कार्य व्यापार का यथार्थ विधान है।

यद्यपि धर्म अपने सार-रूप में एक स्थिर वस्तु है परन्तु फिर भी वह हमारी चेतना में विकसित होता है और उसकी कुछ क्रमिक अवस्थायें होती हैं और अन्ततः विकास की प्रक्रिया में आध्यात्मिकता या विज्ञानमयी चेतना की अवाप्ति ही इसका लक्ष्य है। यद्यपि भारत का प्रबल झुकाव ‘शाश्वत’ की ओर है क्योंकि वह सदा ही उच्चतम वास्तविक तत्त्व रहा है तथापि उसकी संस्कृति में ‘सनातन’ तथा ‘सांसारिक’ का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। परन्तु इस समन्वय को, उसे कहीं बाहर से नहीं प्राप्त करना है क्योंकि श्री अरविन्द के अनुसार बाह्य रूप आत्मा का ही गतिच्छन्द है और विशुद्ध आत्मा की तरह ही महत्त्वपूर्ण है। इसीलिये श्री अरविन्द आत्मा, मन और शरीर की स्वाभाविक समस्वरता को प्राप्त करने और बनाये रखने में ही संस्कृति का सच्चा उद्देश्य स्वीकार करते हैं। अतः यहाँ आत्मा की सर्वोच्च सत्ता स्वीकार करके भी जीवन का निषेध नहीं किया गया है। अपितु भारतीय संस्कृति का यह वृढ़ विश्वास है कि सान्त में विकसित होकर ही हम अनन्त को प्राप्त कर सकते हैं, काल में विकसित होकर ही कालातीत को हृदयंगम कर सकते हैं।

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