Shri Sankara Digvijaya (श्रीशङ्करदिग्विजयः)
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Author | Shree Shivprashad Dwivedi |
Publisher | Chaukhamba Vidya Bhavan |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2022 |
ISBN | 978-81-920794-1-7 |
Pages | 547 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0474 |
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श्रीशङ्करदिग्विजयः (Shri Sankara Digvijaya) आचार्य शङ्कर को भगवान् शङ्कर का अवतार माना जाता है। इनका समय ७८८ ई० से ८२० ईस्वी तक माना जाता है। चतुर्वेदविद्वान् आचार्य शङ्कर की चतुरस्त्र प्रतिभा के सामने तात्कालिक बौद्ध विद्वानों की प्रतिभा हतप्रभ हो गयी। आचार्य शङ्कर ने अपने शारीरकमीमांसाभाष्य में सांख्य, न्याय, वैशेषिक, बौद्ध, पाशुपत, कौल आदि समस्त दार्शनिकों की कटु, किन्तु तथ्यपूर्ण आलोचना की और औपनिषद सिद्धान्त को सर्वोत्कृष्ट सिद्ध किया। उन्होंने अपने भाष्य के माध्यम से इस अर्थ का प्रतिपादन किया कि शारीरकमीमांसा का एकमात्र प्रातिपाद्य अर्थ ब्रह्मात्मैक्य विज्ञान है। यह सम्पूर्ण चराचरात्मक जगत् ज्ञानस्वरूप ब्रह्म में अध्यस्त है। ब्रह्म ही सत्य है। ब्रह्मव्यतिरिक्त प्रतीयमान सम्पूर्ण जगत् मिथ्या है।
आगे चलकर स्वामी शङ्कराचार्य की इतनी अधिक प्रख्याति हुई कि एक बार सम्पूर्ण भारतवर्ष में अद्वैतदर्शन का ही बोलबाला हो गया। सारा भारतवर्ष अद्वैतमय हो गया । इन आचार्य शङ्कर को लेकर इनके चरित से सम्बद्ध अनेक ग्रन्थों का प्रणयन भी हुआ। उन ग्रन्थों में प्रथम और प्रधान ‘शङ्करविजय’ है। इसके रचयिता अनन्तानन्द गिरि हैं। इसका प्रकाशन पण्डित जीवानन्द विद्यासागर ने कलकत्ता से किया था। अनन्तानन्दगिरि आनन्दगिरि से नितान्त भिन्न हैं। यह ग्रन्थ छिहत्तर प्रकरणों में निबद्ध है। आचार्य शङ्कर के जीवनवृत्त से संबद्ध दूसरा ग्रन्थ ‘शङ्करविजयविलास’ है। इसके रचयिता ‘चिद्विलास यति’ हैं। इस ग्रन्थ में बत्तीस (३२) अध्याय है। यह अन्य अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। यह मद्रास की ‘ओरियन्टल लाइब्रेरी’ में तैलङ्गाक्षर में सुरक्षित है।
आचार्य शङ्कर के चरित्र से सम्बद्ध तीसरा ग्रन्थ ‘शङ्करचरित’ है। यह काम- कोटिपीठ की परम्परा के अनुसार है। आचार्य शङ्कर ने स्वयं ‘काञ्चीकामकोटिपीठ’ की स्थापना की थी। इस पीठ के विभिन्न आचार्यों ने आचार्य शंकर तथा इस पीठ के आचार्यों के जीवन से संबद्ध अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया था। उन ग्रन्थों के ही आधार पर इस ग्रन्थ का प्रणयन किया गया है। ‘केरलीय शङ्करचरितम्’ आचार्य शङ्कर के जीवनचरित से संबद्ध चौथा ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का आधार किंवदन्तियाँ तथा प्रवाद अधिक हैं। इस ग्रन्थ के रचयिता का नाम ‘गोविन्दनाथ यति’ है। ‘यति’ इस विरुद से ही स्पष्ट है कि ये संन्यास आश्रम के थे। इस ग्रन्थ में नव अध्याय हैं। इस ग्रन्थ की भाषा-शैली उदात्त और विषयवर्णनानुसार है।
‘गुरुवंश काव्य’ आचार्य शङ्कर के जीवनचरित से संबद्ध पाँचवाँ स्वतंत्र ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में आचार्य शंकर का श्रृङ्गेरीमठानुसार जीवनचरित निबद्ध है। इस काव्य के रचयिता ‘काशीलक्ष्मणशास्त्री’ हैं। इनके गुरु का नाम ‘नृसिंहभारती’ है। इस तरह ‘शंङ्करदिग्विजय’ इस ग्रन्थ से भिन्न उपर्युक्त ऐसे पाँच स्वतंत्र अन्य मिलते हैं, जो आचार्य शंकर के जीवन से संबद्ध है। संभवतः इन सभी ग्रन्थों के ही आधार पर श्री स्वामी ‘विद्यारण्य’ ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया है। प्रकृत ‘शङ्करदिग्विजय’ सोलह सर्गों में निबद्ध काव्य ग्रन्थ है। इस अन्य में काव्यत्व के साथ दर्शन तथा इतिहास का भी सन्निवेश है।
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