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Taitriyopanisad (तैत्तिरीयोपनिषद)

56.00

Author Dr. Anand Kumar Shrivastav
Publisher Bharatiya Books
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN 978-93-92974-05-2
Pages 48
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code TBVP0220
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Description

तैत्तिरीयोपनिषद (Taitriyopanisad) यह उपनिषद् ‘कृष्ण यजुर्वेद’ की तैत्तिरीय शाखा के अन्तर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का अंश है। ‘तैत्तिरीय आरण्यक’ में दस प्रपाठक या अध्याय हैं एवं इसके सातवें, आठवें एवं नवें अध्याय को ही तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता है। इसके तीन अध्याय क्रमशः शीक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली एवं भृगुवल्ली के नाम से प्रसिद्ध हैं। इसका सम्पूर्ण भाग गद्यात्मक है। ‘शिक्षावल्ली’ नामक अध्याय में वेद मन्त्रों के उच्चारण के नियमों का वर्णन है तथा शिक्षा समाप्ति के पश्चात् गुरु द्वारा स्नातकों को दी गई बहुमूल्य शिक्षाओं का वर्णन है। ‘ब्रह्मानन्दवल्ली’ में ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का निरूपण एवं ब्रह्मविद्या का विवेचन है। प्रसंगवशात् इसी वल्ली में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय तथा आनन्दमय इन पञ्चकोशों का निरूपण किया गया है। इसमें बताया गया है कि ब्रह्म हृदय की गुहा में ही स्थित है अतः मनुष्यों को उसके पास तक पहुँचने का मार्ग खोजना चाहिए; किन्तु वह मार्ग तो अपने ही भीतर है। ये मार्ग हैं- पंचकोश या शरीर के भीतर एक के अन्दर एक पाँच कोठरियाँ। अन्तिम कोठरी अर्थात् आनन्दमय कोश में ही ब्रह्म का निवास है जहाँ पहुँच कर जीव रस को प्राप्त कर आनन्द का अनुभव करता है। ‘भृगुवल्ली’ में ब्रह्मप्राप्ति का साधन तप एवं पञ्चकोषों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। इस अध्याय में अतिथि-सेवा-महत्त्व एवं उसके फल का वर्णन भी है। इसमें ब्रह्म को आनन्द मान कर सभी प्राणियों की उत्पत्ति आनन्द से ही कही गई है।

सम्पूर्ण ग्रन्थ क्रमशः शीक्षावल्ली, ब्रह्मानन्दवल्ली एवं भृगुवल्ली नामक तीन वल्लियों में विभक्त है। वल्लियों के अन्तर्गत अनुवाक हैं। प्रथम शीक्षावल्ली में बारह अनुवाक, द्वितीय ब्रह्मानन्दवल्ली में नौ अनुवाक, अन्तिम भृगुवल्ली में दस अनुवाक हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ गद्यात्मक है। प्रथम एवं द्वितीय वल्ली में जहाँ अध्यात्म-चिन्तन की पराकाष्ठा दृष्टिगोचर होती हैं वही अन्तिम भृगुवल्ली में अध्यात्म-चिन्तन महर्षि भृगु एवं उनके पिता वरुण देवता के मध्य हुये संवाद के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। ‘आनन्दमय परमात्मा ही ब्रह्म है’ वही इस वल्ली का सार है। इसे यहाँ भार्गवी वारुणी विद्या कहा गया है।

इस उपनिषद् के शब्दार्थ-अन्वय सह अनुवादपरक कार्य के सम्पन्नता के निमित्त मैं सर्वप्रथम विश्वपति विश्वाराध्य करुणावरुणालय परमात्मा के चरणाम्बुज में प्रणामाञ्जलि अर्पित करता हूँ। मैं अपनी गुरुपरम्परा का सतत अधमर्ण हूँ, उनके प्रति अहर्निश प्रणति निवेदन करता हूँ।

तैत्तिरीय उपनिषद् कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के अन्तर्गत तैत्तिरीय आरण्यक का अंश है, तैत्तिरीय आरण्यक में दस प्रपाठक (अध्याय) हैं। इसके सातवें, आठवें एवं नौवें अध्याय को ही तैत्तिरीय उपनिषद् कहा जाता है। इसके तीन अध्याय क्रमशः शीक्षावल्ली (१२ अनुवाक), ब्रह्मानन्दवल्ली (९ अनुवाक) एवं भृगुवल्ली (१० अनुवाक) के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह उपनिषद् सम्पूर्णतया गद्यात्मक है। सम्पूर्ण उपनिषद् में ब्रहाविद्या का मञ्जुल एवं सरस शैली में निरूपण किया गया है, शीक्षावल्ली में वैदिक मन्त्रों के उच्चारण नियमों तथा गुरु द्वारा स्नातकों को दी गयी शिक्षाओं का वर्णन है।

ब्रह्मानन्द-वल्ली में ब्रह्मप्राप्ति के साधनों का निरूपण तथा ब्रह्मविद्या का विवेचन है। भृगुवल्ली में ब्रह्मप्राप्ति के साधन तप एवं पञ्चकोशों का वर्णन है। प्रस्तुत पुस्तक तैत्तिरीय उपनिषद् का सान्वय टिप्पणी सहित हिन्दी अनुवाद है, अनुवाद अत्यन्त सरल एवं बोधगम्य है। जटिल पारिभाषिक शब्दों को टिप्पणी के अन्तर्गत स्पष्ट किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक उपनिष‌द्विद्या में रुचि रखने वालों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।

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