Upadesha Sahastri (उपदेशसाहस्री)
₹250.00
Author | Pt. Gajanan Shastri Musalgaukar |
Publisher | Dakshinamurty Math Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2014 |
ISBN | - |
Pages | 336 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | dmm0064 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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CompareDescription
उपदेशसाहस्री (Upadesha Sahastri) भारतीय धर्मगगन के सवॉज्ज्वल यह कृष्ण, बुद्ध व सङ्कर है, इस बात को सारा संसार स्वीकारता है। बर्तमान हिन्दू धर्म के संस्थापक होने के नाते हिन्दू धर्म के तो शङ्कर हो सर्वस्व हैं। गत बारह सौ वर्षों में उनके द्वारा प्रदत संकेतों को ही विस्तृत कर अनेक सम्प्रदाय निर्मित हुए हैं। उनके भाध्ययन्य जटिल व दार्शनिक युक्तियों से भरपूर होने से सामान्य व्यक्ति न केवल उन्हें पढ़ने पर घबड़ा उठता है वरन् उनके भावों को समझना भी उसके लिये असम्भव हो उठता है। कई बार तो पूर्वपक्ष को युक्तियों से प्रभावित हो उसे ही ठीक मान बैठता है। आचार्य शङ्कर की शैली है कि विरोधी को बातों को विस्तार से रख कर उनकी आधारशिला को अपनी एक या दो युक्तियों से ऐसा ध्वस्त कर देना कि उसकी सारी बट्टालिका भूमिगत हो जावे। अतः उन्होंने अनुग्रह करके मध्यमाधिकारियों के लिये ऐसे प्रकरण-ग्रन्थों की रचना की, जिनमें इतना काठिन्य न हो एवं सिद्धान्त-पक्ष को पूर्ण रूप से उपस्थित कर दिया जाय। जो पूर्व में ही भिन्न दर्शनों से प्रभावित न हुआ हो उसकी ज्ञाननिष्ठार्थ इतना ही पर्याप्त है। ऐसे बन्यों में कई तो इतने छोटे हैं कि बिना टीका के उनका अर्थ हो तिरोहित रहता है। इसके दो उदाहरण श्री दक्षिणामूर्ति स्तोत्र व दशश्लोकी है।
सुरेश्वराचार्य के वातिक के बिना प्रथम एवं मधुसूदन व ब्रह्मानन्द सरस्वती के बिना द्वितीय का अर्थ कभी भी उजागर न हो सकता था। परन्तु वर्तमान धंय ‘उपदेशसाहस्री’ स्वयं अपने में स्पष्ट है। इसको सुरेश्वराचार्य ने अपनी नैष्कम्यंसिद्धि में तथा बातिकामृत में उद्धृत किया है। आचार्य के सिद्धान्त को ठीक-ठीक समझाने वाले ग्रन्थों में यह श्रेष्ठ है। श्रीमत्परमहंस स्वामी आनन्दगिरि जी की भव्य टीका के साथ इसे पूर्व में प्रकाशित किया गया है। रामतीर्थ टीका भी निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित हो चुकी है। इन्हीं के आधार पर श्री गजाननशास्त्री मुसलगांवकर जी ने इसकी विस्तृत टोका लिखकर इसे हिन्दी मात्र जानने वालों के लिये सुलभ कर दिया है। विद्वान् लेखक ने अनेक अन्य ग्रन्थों के अनुवाद भी प्रकाशित किये हैं, जो उनकी दार्शनिक परि- पक्वता के द्योतक है। हमें आशा है कि वे वेदान्त के अन्य ग्रन्थों के अनुवाद भो समय-समय पर उपस्थित करते रहेंगे। इनके अनुवादों को विशेषता यही है कि स्पष्टतया आवश्यक पदार्थों को वहीं उपस्थित कर जो दर्शनों से अपरिचित हैं, उनके लिये भी ग्रन्थों को सुगम कर देते हैं।
उपदेशसाहस्री किसी भी मोक्षमार्ग के पथिक के लिए दृढ़ सम्बल है। इस एक ही ग्रन्थ को भली प्रकार विचारपूर्वक समझ कर तदनुक्कूल साधना करने से साधक निश्चित् ही अपने लक्ष्य पर पहुँच जायगा । वर्त्तमानकाल में संस्कृत का पठन-पाठन विरल होता जा रहा है। यद्यपि यह सत्य है कि संस्कृत में दार्शनिक विषय को स्पष्ट करने की जो सामर्थ्य है, वह अभी हिन्दी में नहीं आ पायी है। परन्तु इतने मात्र से असंस्कृतज्ञ को वेदान्त के प्रवेश से वंचित रखना उपयुक्त न समझ कर गत दो सौ वर्षों से हिन्दी में उत्कृष्ट वेदान्त ग्रन्थों की रचना की परम्परा प्रारम्भ करने में संन्यासी अग्रगामी बने। ‘महेश अनुसन्धान’ इसी कड़ी में आगे बढ़ रहा है। हम उसके संचालक व प्रबन्धकों को आशीर्वाद देते हैं कि वे स्वयं भी पूर्ण निष्ठा प्राप्त कर सकें व इस प्रकार के ग्रन्थों को अनूषित करके जनसामान्य को इस भीषण काल में वेदान्त की ओर प्रवृत्त कर उन्हें शान्ति देने में समर्थ हो सकें। जनता से भी अनुरोध है कि जीवन में प्रतिदिन न्यूनतम २४ मिनट (१ घड़ी) अर्थात् १/६० या षष्टधंश वेदान्त-ग्रंथों के स्वाध्याय में लगावें। सर्वज्ञ शङ्कर की भाषा व युक्ति इतनी सरल व जीवन में व्यावहारिक है कि कल्याण हुए बिना रह ही नहीं सकता। उमामहेश्वर से प्रार्थना है कि यह ग्रन्थ भारत के अशान्त वातावरण में सभी को शान्ति पहुंचा कर सफल हो।
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