Vakrokti Jivitam (वक्रोक्ति जीवितं)
₹115.00
Author | Prof. Om Prakash Pandey |
Publisher | Chaukhamba Sanskrit Series Office |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition, 2020 |
ISBN | 978-81-218-0454-7 |
Pages | 218 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0063 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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वक्रोक्ति जीवितं (Vakrokti Jivitam) संस्कृत काव्यशास्त्र के इतिहास में सर्वप्रथम ‘भरत और भामह प्रमुख आचार्यों के रूप में प्रतिष्ठित हैं। तदनन्तर रचना-काल का स्थान है, जिसमें अलंकार, रीति, रस और ध्वनि-सम्प्रदायों का उद्भव हुआ। आगे इसी परम्परा में ‘वक्रोक्ति’ सम्प्रदाय का आविर्भाव परिलक्षित होता है, जिसके संस्थापक ‘वक्रोक्ति जीवित’ के प्रणेता आचार्य कुन्तक हैं। कुछ अपवादों को छोड़ कर काव्यशास्त्र के अधिकांश प्रमुख आचार्य कश्मीर के हैं। सम्प्रदायों का निर्माण काव्य के आत्मतत्त्व अथवा प्राणभूत तत्त्व का मान्यता के आधार पर हुआ।
‘वक्रोक्ति’ के महत्त्व का बीज-वपन तो काव्यशास्त्र के प्रथम आचार्य भामह ने ही कर दिया था-
सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिरनयार्थो विभाव्यते।
यत्नोऽस्यां कविनाकार्येः कोऽलङ्कारोऽनया विना।। – (काव्यालंकार, २.८५)
अपने ‘काव्यादर्श’ (२.३६३) में आचार्य दण्डी ने भी (भिन्नं द्विधा स्वभावोक्ति- वक्रोक्तिश्चेति वाड्मयम्) (२.३६३) के रूप में वक्रोक्ति की विशिष्टता का उपपादन किया। लेकिन यहाँ तक वक्रोक्ति केवल अलंकार-स्तर तक का सोपान ही पार कर पायी। इसे पूर्ण गौरव मिला आचार्य कुन्तक से। इनके नाम से पूर्व राजानक विशेषण का प्रयोग भी मिलता है। कुन्तक का समय आनन्दवर्धन के बाद तथा राजशेखर और व्यक्ति विवेककार महिमभट्ट के मध्य में है। उन्होंने आनन्दवर्धन तथा भवभूति एवं राजशेखर-इन तीनों का उल्लेख किया है- ‘यस्मादत्र ध्वनिकारेण व्यङ्गन्य-व्यञ्जक भावोऽत्र सुतरां समर्पितस्तत् किं पौनरुक्त्येन’ तथा- ‘भवभूतिराजशेखरविरचितेषु बन्धसौन्दर्यसुमनेषु मुक्तकेषु परिदृश्यते।’
‘व्यक्तिविवेक’ में महिमभट्ट ने कुन्तक का स्मरण अत्यन्त गौरवपूर्वक किया है-
काव्यकाञ्चनकशाश्ममानिना कुन्तकेन निजकाव्यलक्ष्मणि।
यस्य सर्वनिरवद्यतोदिता श्लोक एष स निदर्शितो मया ।।
इन सन्दर्भों के आधार पर कुन्तक का काल-निर्धारण दशम शताब्दी के अन्तिम भाग में सामान्यतः किया जाता है। गोपाल भट्ट ने भी अपने ‘साहित्य सौदामिनी’ संज्ञक ग्रन्थ में आचार्य कुन्तक का उल्लेख आदरपूर्वक किया है-
वक्रानुरञ्जिनीमुक्तिं शुक इव मुखे वहन्।
कुन्तकः क्रीडति सुखं कीर्तिस्फटिक पञ्जरे।।
‘वक्रोक्तिजीवित’ ग्रन्थ में समीक्ष्य विषयों का प्रतिपादन कारिका, वृत्ति तथा उदाहरणों के माध्यम से किया गया है। सम्पूर्ण ग्रन्थ चार उन्मेषों में विभक्त है। इनमें से प्रथम दो उन्मेष तो सम्पूर्ण रूप से उपलब्ध हैं, किन्तु अन्तिम दो उन्मेष अपूर्ण हैं। प्रथम उन्मेष में, पारम्परिक रूप से काव्य के प्रयोजन, काव्य के स्वरूप तथा वक्रोक्ति- निरूपण की पीठिका विन्यस्त है। द्वितीय से वक्रोक्ति के विभिन्न रूपभेदों, यथा वर्णविन्यास वक्रता, पदपूर्वार्ध वक्रता तथा प्रत्ययवक्रतादि का उपपादन है। अलंकारों का विवरण वाक्यवक्रता के अन्तर्गत प्रदत्त है। ‘अलंकार’ शब्द की उनकी परिभाषा वक्रोक्तिजीवित की द्वितीय कारिका की वृत्ति में इस प्रकार की गई है- ‘अलंकारो विधीयते, अलङ्करणं क्रियते ।……. कोऽपि, अलौकिकः सातिशयः। सोऽपि किमर्थ- मित्याह-लोकोत्तरचमत्कारकारिवैचित्र्यसिद्धये असामान्याह्लादविधायिविचित्र भावसम्पत्तये।’
मम्मट की तरह कुन्तक भी शब्द और अर्थ दोनों की युति को काव्य मानने के पक्ष में हैं। उन्होंने प्रत्येक तिल में जैसे तेल होता है, वैसे ही शब्द और अर्थ के युग्म की आह्लादकारिता का प्रतिपादन किया है, किसी एक में नहीं (७वीं कारिका की वृत्ति)।
कुन्तक ने प्रदत्त उदाहरणों की भी भरपूर विवेचना की है। किसमें कितना कवित्वजन्य आकर्षण है, यह उनकी सूक्ष्मेक्षिका प्रतिभा से कहीं भी बच नहीं सका है।
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