Vasudevhindi : Ek Adhyan (वसुदेवहिंडी : एक अध्ययन)
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Author | Dr. Smt. Kamal Jain |
Publisher | Parshawanath Vidyapeeth, Varanasi |
Language | Hindi |
Edition | 1st edition,1997 |
ISBN | 81-86715-24-X |
Pages | 164 |
Cover | Paper Back |
Size | 13 x 1 x 21 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | PV00070 |
Other | Dispatched in 3 days |
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वसुदेवहिंडी : एक अध्ययन (Vasudevhindi Ek Adhyan) आध्यात्मिक एवं धार्मिक जीवन मूल्यों को आत्मसात करने हेतु प्रेरणा देने के लिये कथाओं और रूपकों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। वस्तुतः कथा परम्परा का प्रचलन मानव समाज एवं संस्कृति के उद्भव और विकास के प्रारम्भिक युग से ही रहा है। कथाएँ एक ऐसा माध्यम है, जो रोचक ढंग से व्यक्ति के भाव जगत् में परिवर्तन लाती हैं। यही कारण है कि निवृत्ति प्रधान श्रमण संस्था में भी कथाओं और रूपकों का महत्त्व प्राचीनकाल से ही रहा है। ज्ञाताधर्मकथा में भगवान् महावीर के द्वारा उपदिष्ट रूपक कथाओं का एक महत्त्वपूर्ण संकलन उपलब्ध होता है। कथाओं की अपनी यह विशेषता होती है कि वे घटनाओं का एक ऐसा जीवन्त दृश्य उपस्थित करती हैं जिसका जनसामान्य भी आस्वादन कर लेता है। यही कारण है कि निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा में भी प्राचीनकाल से कथा साहित्य का सृजन होता रहा है। जैन परम्परा ने अपने आगम साहित्य को जिन चार भागों में वर्गीकृत किया उसमें धर्मकथानुयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके मूल्य और महत्त्व को देखते हुए ही इसे प्रथमानुयोग के नाम से अभिहित किया जाता है। आगम साहित्य में संकलित कथाओं के अतिरिक्त जैन आचार्यों ने स्वतन्त्र रूप से भी कथा साहित्य की सर्जना की है। इन कथाओं में विमलसूरिकृत ‘पउमचरियं’ तथा संघदासगणि की वसुदेवहिण्डी प्राचीनतम् है जहाँ विमलसूरि का पउमचरियं जैन रामकथा को प्रस्तुत करता है वहाँ वसुदेवहिण्डी में कृष्ण के पिता वसुदेव के यात्रा वृतान्त का चित्रण किया गया है।
यह स्पष्ट है कि वसुदेवहिण्डी मुख्यतः एक शृङ्गाररस प्रधान कथा ग्रन्थ है। अतः यह स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठना चाहिए कि निवृत्ति प्रधान जैन आचार्यों ने शृङ्गारप्रधान कथाएँ क्यों लिखीं? वस्तुतः जैन आचार्यों का मुख्य उद्देश्य तो जनसाधारण में त्याग और वैराग्य की भावनाओं को जगाना ही था किन्तु इस प्रकार के नीरस प्रवचनों में जनसाधारण की अभिरुचि नहीं बन पाती थी। अतः उन्होंने जनसाधारण को धर्म मार्ग में आकर्षित करने के लिए अपनी धर्मकथाओं में शृङ्गाररस से परिपूर्ण प्रेमाख्यानों को समाहित करके साहित्य सर्जना प्रारम्भ की, जिस प्रकार कोई वैद्य अपनी कड़वी दवाई को गुड़ में रखकर रोगी को इस प्रकार देता है कि वह प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण कर लेता है। इसी प्रकार धर्माचार्यों को भी काम कथा में रत जनसामान्य के मनोरञ्जन के लिए शृङ्गार कथा के माध्यम से धर्म कथा सुनानी चाहिए। वसुदेवहिण्डी के सहयोगी लेखक धर्मसेनगणि ने भी स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार्यों का मुख्य उद्देश्य तो जनसामान्य में त्याग और वैराग्य की भावनाओं को उत्प्रेरित करना ही रहा किन्तु उन्हें शृङ्गार प्रधान कथाओं के माध्यम से वैराग्य का उपदेश देना अधिक उपयोगी लगा। वसुदेवहिण्डी की रचना भी इसी दृष्टिकोण को रखकर की गई थी।
वसुदेवहिण्डी एक बृहत्काय ग्रन्थ है और अभी तक सम्पूर्ण ग्रन्थ न तो उपलब्ध हो सका है और न ही प्रकाशित हुआ है। इसके प्रथम खण्ड में २९ लम्बक है जो ११,००० श्लोकों में निबद्ध हैं। मध्यम खण्ड में ७१ लम्बक हैं जो १७,००० श्लोकों में पूर्ण हुए हैं। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन की मान्यता है कि यह पैशाची प्राकृत में लिखित गुणाढ्य की बृहत्कथा पर आधारित है। वसुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड के लेखक संघदासगणि हैं। इसका दूसरा खण्ड जो मध्यमखण्ड के नाम से जाना जाता है, वह धर्मसेनगणि के द्वारा रचित है। आवश्यकचूर्णि में वसुदेवहिण्डी का उल्लेख मिलता है। आवश्यकचूर्णि का रचनाकाल ई० सन् ६०० के लगभग माना जाता है, अतः स्पष्ट है कि इसके पूर्व इस ग्रन्थ की रचना हो चुकी थी। कुछ विद्वानों ने वसुदेवहिण्डी के प्रथम खण्ड के रचनाकार संघदासगणि का समय ईसा की तीसरी-चौथी शताब्दी निश्चित किया है। ग्रन्थ की भाषा और विषय-वस्तु की दृष्टि से भी यह स्पष्ट होता है कि प्रस्तुत कृति चौथी-पाँचवीं शताब्दी की है। इसप्रकार विमलसूरि के ‘पउमचरियं’ के पश्चात् लिखित कथाओं में वसुदेवहिण्डी का स्थान सर्वोपरि है। प्रस्तुत कथा में प्रसङ्गवश रामायण और महाभारत दोनों के कथासूत्र निबद्ध कर लिए गये हैं। मात्र यही नहीं प्राचीन भारतीय कथाओं के अनेक प्राचीन कथासूत्र इस ग्रन्थ में उपलब्ध हो जाते हैं। इसके साथ ही साथ प्राचीन भारतीय समाज और संस्कृति के तथ्यों का भी इस ग्रन्थ में सुन्दर और सजीव चित्रण पाया जाता है।
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