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Ved Ka Swaroop Aur Pramanya Vol. 1 (वेद का स्वरुप और प्रामाण्य प्रथम भाग)

175.00

Author Swami Karpatri Ji Maharaj
Publisher Swami Karpatri Ji Maharaj
Language Hindi
Edition 2023
ISBN -
Pages 168
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code KJM0023
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Description

वेद का स्वरुप और प्रामाण्य प्रथम भाग (Ved Ka Swaroop Aur Pramanya Vol. 1) मनुष्य अपने व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए भूतल पर अवतीर्ण होता है। व्यक्तित्व की पूर्णता उसके सभी पक्षों के पोष पर निर्भर है। उसके विभिन्न पक्षों में प्रमुख ये हैं- आध्यात्मिक, नैतिक एवं भौतिक। प्रथम एवं तृतीय का सम्बन्ध व्यक्ति से है और द्वितीय का समष्टि से। अर्थात् वैयक्तिक एवं सामाजिक उभयपक्षीय पूर्णता मनुष्य का प्राप्य है। समस्या यह है कि इस ‘पूर्णत्व’ की प्राप्ति के लिए मनुष्य अपना यत्न किस दिशा में बढ़ाये? इस प्रश्न का उत्तर देने वाले आज प्रमुख रूप में दो दल-भौतिकवादी एवं अध्यात्मवादी जागरूक हैं। एक दृष्ट को सर्वस्व मानता है, दूसरा ‘अदृष्ट’ को। एक अपने अन्वेषण, परीक्षण एवं समीक्षण से प्राप्त तथ्यों को ही सब कुछ मानता है, दूसरा ‘आप्तवचन’ पर विश्वास करता है। एक ‘आप्त-वचन’ या परम्परागत विचार को ‘सत्य’ पर आवरण मानता है और कहता है कि उसे फाड़ कर नवीन आलोक में सत्य को निहारना चाहिए, तो दूसरे का उद्घोष है कि हम संशय, भ्रम एवं विप्रलिप्साग्रस्त बुद्धि से ‘सत्य’ के अपने स्वरूप को पहचान ही नहीं सकते। उसके निर्णय के लिए निर्मल एवं निर्दुष्ट बुद्धिवाले आप्तों के वचन अथवा ‘निसर्गजात शब्दराशि का ही सहारा ले सकते हैं। इस विवाद में किस मत की मान्यता स्वीकार हो और किसके सिद्धान्त व्यक्तिक्त की पूर्णता के लिए कार्यान्वित किये जायं, यह एक बीहड़ समस्या है।

विचार से दृष्ट’ एवं अदृष्ट’ के ऊपर आस्था रखने वाली उक्त दो विचारधाराओं में दृष्टवादी धारा के दोष बहुत स्पष्ट हैं। दृष्टवादी धारा ‘अर्थ’ एवं ‘काम’ को ही परम पुरुषार्थ मानने वाली धारा है। ‘अर्थ’ एवं ‘काम’ के अर्जन में अपेक्षित साधन के उत्कृष्ट रूप को ग्रहण करने और अपकृष्ट रूप को त्यागने में उनके यहाँ एकमात्र समाज और राजदण्ड का भय है। समाज एवं राजदण्ड के अतिरिक्त ‘अदृष्ट’ सत्ता, जो दिन-रात, भीतर-बाहर एकान्त एवं समाज सर्वत्र व्यापक एवं साक्षी है, कर्मानुरूप फल की व्यवस्थापिका है, है ही नहीं। फल यह होता है कि कभी भी तृप्ति न प्रदान करने वाले ‘अर्थ’ एवं ‘काम’ जैसे पुरुषार्थों की पूर्ति में निसर्गतः प्रवृत्त रागान्ध मनुष्य समाज एवं राजदंड से बचकर विजन में मन में साधकतम अपकृष्ट उपाय को पकड़ सकता है और पकड़ता है और उस अपकृष्ट साधन के प्रयोग का परिणाम समाज को लक्षित होता है, पर उस बहिर्मुख एवं स्थूलद्रष्टा समाज या राजव्यवस्था को उसका ज्ञान कैसे हो? चर-विभाग की भी शक्ति परिमित है।

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