Loading...
Get FREE Surprise gift on the purchase of Rs. 2000/- and above.
-15%

Vikramorvashiyam (विक्रमोर्वशीयम्)

115.00

Author Dr. Vindheyeshwari Prashad Mishra
Publisher Chaukhambha Krishnadas Academy
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2013
ISBN -
Pages 295
Cover Paper Back
Size 14 x 4 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSSO0716
Other Dispatched in 1-3 days

10 in stock (can be backordered)

Compare

Description

विक्रमोर्वशीयम् (Vikramorvashiyam) “मानवीय सभ्यता और संस्कृति के विकास-संवर्धन में जिस रागात्मक तत्व ने सर्वाधिक योगदान दिया, वह मनुष्य की आनन्दानुसंधाविनी भावना और सहज कल्पना चमत्कृति का प्रतिफलन ‘काव्य’ ही था। भारतीय ऋषि की प्रक्षर वौमुषी ने इस समग्र विश्व बह्माण्ड को स्रष्टा का ‘काव्य’ मानकर जीने वाले सहुदय को जरा-मरण से रहित कहकर मानों ‘काव्य’ की इस गाधन महता का ही क्यापन किया है, इसी अर्थ में ‘कवि’ को स्वयम्मू और कान्तद्रश मनोषी की समाख्या देकर इस अभिधान को समग्र सृष्टिसम्भावनाओं के सूत्रधार से सम्बद्ध माना गया है। मौतिक अर्थों में भी ‘कवि’ ही में वह व्यक्तित्व है जो कालजयो और अमृतपुत्र कहलाने का समुचित पात्र है। कुशल कवियों की कोति-कावा में जरा-मरण की कालिमा का सत्रिवेश नहीं रहता, अतएव वस्तुतः वे ही जयघोष के सच्चे अधिकारी कहे जा सकते हैं।

कालिदास भारतीय साहित्याकाश के ऐसे ही मास्वर महाकवि है, जिनकी कीति-कौमुदी आज भी अम्लान है, शताब्दि की बात्या के शतशः प्रहारों को सहकर भो जिनकी रखना-प्रतिमा का दीप बाज भी निष्क्रम्य प्रकाश-वर्षा करता देखा जा सकता है। संस्कृत-नाट्य-साहित्य और कालिदास – काव्य एक समय जीवन दृष्टि है, किन्तु इसके आस्वादन के दो विशिष्ट प्रकार हैं। सुनकर मानन्दानुभूति कर लेना यह प्रकार कल्पना-प्रवणस्तरीय सहवयों का कार्य है और उसे मचाघटित रूप में देखकर अनुमावित होना यह आबालवृद्धवनिता, शिक्षित अशिक्षित नादिसभी के लिए सहजग्राह्य प्रणाली है, इमी हेतु आरम्भ से ही काव्य के ‘अश्य बऔर दृश्य’ ये वो मुख्य भेद निर्मित हो गए। यद्यपि कालक्रम से ‘श्रब्य’ का स्थान पहले आता है किन्तु सहज स्पृहणीयता की दृष्टि से मावुकों ने तवपेक्षा ‘महत्व ‘दृश्य’ को ही अधिक दिया। यह दृश्य काव्य ही ‘रूपक’ और फिर उसके प्रमुख भेद ‘नाटक’ के रूप में रसमवंणा का प्रमुक्त आश्रय बनकर ‘काव्येषु नाटकं रम्यम्’- यह विश्रुति प्राप्त कर सका। नाट्य विद्या के भाद्याचार्य मरत मुनि का कथन है कि- ‘ऐसा कोई ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग अथवा कर्म नहीं है जो इस ‘माठ्य’ में उपलब्ध न हो।

नाठ्य और कुछ नहीं, समय मान-बोय जीवन-व्यापार की सफल और सौहें श्य अनुकृति है। आदर्श में प्रतिबिम्बित अपनी मुखच्छाया की भाँति इसे रंगमंच पर देखा जा सकता है अतएव यह ‘रूप’ शब्द से व्यवहुत होता है और अभिनय में इसो आत्मरूप का अभिनेता, नट आदि में आरोप होता है, अतएव उसको ‘रूपक’ कहा जाता है’। विद्वानों ने नाठ्य विद्या को पर्याप्त प्राचीन और इस अनुकरणात्मक नाट्य-प्रवृत्ति को चिरम्तम माना है। चिन्तकों के अनुसार विश्वसाहित्य के प्रथम ज्ञान-कोष ऋग्वेद तथा अन्य वेदोपवेदों में ही इस विद्या का उत्स बोजा जा सकता है। ऋग्वेद के एक मन्त्र में ‘उद्या’ को शैलूषी अर्थाद ‘मटी’ के रूप में उपमित किया गया है। इसीके कतिपय संवादों में नाट्यकला के बिखरे बोनों क. अस्तित्व प्रथमतया प्राप्त हुआा है।

Reviews

There are no reviews yet.

Be the first to review “Vikramorvashiyam (विक्रमोर्वशीयम्)”

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Quick Navigation
×