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Vratraj (व्रतराज)

1,100.00

Author Sri Vishwanath Sharma
Publisher Khemraj SriKrishna Das Prakashan, Bombay
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2020
ISBN -
Pages 1080
Cover Hard Cover
Size 17 x 5 x 24 (l x w x h)
Weight
Item Code KH0057
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Description

व्रतराज (Vratraj) अखिल विश्वके सारे मानव समाजोंपर दृष्टि डालकर देखलीजिए, आधुनिक और प्राचीन सभ्यताओं पर पूरा विचार कर लीजिए, भूमण्डलके किसीभी छोटेसे छोटे और बडे से बडे खण्डको ले लीजिए बाहे असभ्य कहलानेवाले नरोंकाही समूह क्यों न हो? कोई भी समुदाय एवं संप्रदाय बतों और उत्सवोसे साली नहीं है, अपने-अपने  ढंगके सभी उत्सव मनाते है और व्रत करते हैं। व्रतोंकी महिमा वेदनेभी बड़े ही आदरके साथ गाई है, बत करनेवाला सुयोग्य पुरुष जगदीशसे प्रार्थना करता है कि-” अग्ने व्रतपते व्रतं चरि ध्यामि तच्छकेयम्, तन्मे राज्यताम्, इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि” हे व्रतोंके अधिपते । सबसे बड़े परमात्मन् ! में वत करूंगा, ऐसी मेरी इच्छा है में उस बतको पूरा करसकूं, यह मुझे शक्ति दीजिए। यह तो बतकर्ताको व्रतारम्भसे पहिलेका बीत है कि, वह व्रतके पूरा करनेसे मेरा कल्याण होगा इस भावनासे प्रेरित होकर उसकी सफलता के लिए परमात्मासे प्रार्थना करता है। जव वह बतनिष्ठ होजाता है तो उस कालमें सत्य मानता है कि, में अपने जीवनके अमूल्य समयको वृथा ही नष्ट कर रहा था उससे अब विरत होकर सच्चे उपयोगको ओर जाता हूँ। जितना में बतमें समय लगाऊँगा वही सच्चा समय है, बाकी तो अनूत यानी झूठा उपयोग है। उससे जीवनकी कोई सार्थकता नहीं होती। यह है बतपर बदि कोका विश्वास कि, बत ही सच्चा जीवन बनाता है। है यही कारण है कि, कितनीहि ऋग्वेदकी ऋचाजोंमें अत्यन्त, सम्मानके साथ वत शब्दका उल्लेख किया है-“आदित्य शिक्षीत वतेन, वयमादित्य व्रते जन्मनि वते, प्रत्नो अभिरक्षति व्रतम्, अपामनि व्रते” ये ऋग्वेदके मन्त्रोंके वे थोडेसे टुकडेभी दिखा दिये है जिनमें व्रत शब्दका प्रयोग परिस्फुट दीख रहा है।

व्रत शब्दके अयं का विचार तो निरुक्तमें किया गया है। इसे महर्षि मास्कने कर्मके पर्यायोंमें रखा है, इसी कारण उन्होंने कह दिया है कि, बत एक कर्म विशेष ही। है। वृत्र-धातुसे उणादि अतचू प्रत्यय होकर व्रत शब्द बनता है। निरुक्त- कारने इसके विवरण ” वृणोति पदसे किया है कि, कि, जो कर्म कर्ताको वृत्त करे वह व्रत है। दूसरा विवरण उन्होंने “बारयति” पदसे दिया है, कि जो अपनेमें प्रवृत्त हुए पुरुषको स्त्री आदि अपचारों से रोकता है, यह नियम कराता है, एवं अनेकों विषिद्ध कर्मोंसे रोकता है, जिन्हें कि, परिभाषाप्रकरणमें व्रत राजने गिन गिन कर समझाया है। यदि विचार करके देखा जाय तो निस्क्तकारके दोनों अर्थ व्रतराजके व्रत पर घटते हैं। यह एक तरहके संकल्प विशेषको व्रत कहता है, इस व्रतराजके इतके अर्धर्षपर गहरी दृष्टिसे विचार किया जाय तो दोनोंके अर्थका स्वारस्य एकही होता है। महर्षि मास्कके अर्थसे उसका कोई भी वास्तविक भेद नहीं रहजाता। वतराजकारका अर्थ कर्मके पदार्थसे किसी भी अंशमें बाहर नहीं जा सकता, व्रतियों के सामान्य धमों तथा उपवासके धर्मोमें विस्तारके साथ वे पदार्थ लिखे हुए है; जो कि, उन्हें करने और छोडने चाहिये। निषिद्ध कर्मीका रोकनेवाला वत ही है। क्योंकि, उनके करनेमें बतीको व्रतके भंग होनेका पूरा भय रहता है। इसी कारण वह उनको नहीं करता।

इस तरह यह व्रत, वतीका बारक भी सिद्ध होता है तथा इसका फल व्रतकर्ताको प्राप्त होता है इसके सविधि। पूर्ण होनेमें उसकी उन्नति तया खंडित करनेसे प्रत्यवायकी प्राप्ति होती है इस तरह यह पाप और पुष्प दोनोंही फलोंका देनेवाला भी है। अतएव दूसरा भी निरुक्तकारका अर्थ व्रतराजके बतार्थमें घट जाता है। है। वतकी अर्थसंकलनाके देखनेसे तो इसी निश्चयपर पहुंचते है कि, ग्रन्थकारकी दृष्टि बढी ऊंची। थी। उनके दृष्टिपथमें वैदिकमार्ग समाया हुआ था। यद्यपि उन्होंने उत्सव शब्दका बहुत कम प्रयोग किया है पर उत्सव मा त्योहार एक भी इनसे नहीं बचा है त्यौहारोंको इन्होंने व्रतके नामते भी कहा है और भिन्न भी प्रति पादन किया है। जैसे संकटचतुर्थी आदि जिनमें केवल उत्सवके साथ देत्र पूजन आदि भी किए जाते हैं। बहुतसे उत्सवोंका तो उत्सव नामसे उल्लेख हो कर दिया है। जो केवल बतका अर्थ उपवास समझते हैं उन्हें यह भ्रांति होजाती है कि बतमें उत्सव कैसे आजायेंगे पर पूर्वीक्त अयोंमें तो उत्सव भी बतोंमें ही आजाते हैं। कितनी ही जगह बतोंकी पूजामें कहते भी है कि कर्तव्यश्च महोत्सवः” बड़ा भारी उत्सव करना चाहिए।

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