Yagyopvit Vedarambha Samavartan Sanskar (यज्ञोपवीत वेदारम्भ समावर्तन संस्कार)
₹40.00
Author | Dr. Ram Murti Chaturvedi |
Publisher | Sampurnananad Sanskrit Vishwavidyalay |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 1st edition |
ISBN | 81-7270-065-2 |
Pages | 73 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 1 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | SSV0048 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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यज्ञोपवीत वेदारम्भ समावर्तन संस्कार (Yagyopvit Vedarambha Samavartan Sanskar) वस्तुतः संस्कारों के फल अथवा परिणाम को दृष्टि में रखकर शास्त्रकारों ने इन्हें तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम दोषमार्जनात्मक संस्कार, द्वितीय अतिशयाधानात्मक संस्कार, तृतीय हीनाङ्गपूरणार्थक संस्कार। किसी भी प्राकृतिक मलिन वस्तु को उपयोगी बनाने के लिए इन्हीं तीन उपायों की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए हम खान से निकले हुए लोहे पर विचार कर सकते हैं। विदित है कि खान से निकला हुआ लोहा अतिमलिन होता है, यदि उससे तलवार बनाना हो तो प्रथमतः उसका ‘दोषमार्जन’ अर्थात् उसे साफ करना आवश्यक होता है, पुनः उसमें अतिशय कठोरता एवं तीक्ष्णता लाने के लिए उसे आग में नियमित तपा कर इस्पात बनाना होता है।
पुनः उस इस्पात को तलवार के आकार में बनाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है, इस प्रकार अतिशयाधान द्वारा तलवार बन जाने पर उसे लकड़ी, सोने या चाँदी में जड़ना तथा उसमें मुठिया आदि लगाना पुनः म्यान आदि में सुरक्षित रखना ‘हीनाङ्ग-पूरण’ कहा जाता है, संस्कारों के विषय में भी यही दृष्टान्त समझना चाहिए। संक्षेप में कह सकते हैं कि गर्भाधान, जातकर्म, अन्नप्राशनादि संस्कारों द्वारा जातक का दोषमार्जन होता है। चूड़ाकरण, उपनयनादि संस्कारों द्वारा जातक में अतिशयाधान किया जाता है तथा विवाह, अग्न्याधानादि द्वारा हीनाङ्ग की पूर्ति की जाती है।
यज्ञोपवीत-संस्कार के नाम
शास्त्रकारों ने यज्ञोपवीत-संस्कार का दूसरा नाम ‘उपनयन संस्कार’ बतलाया है, इसी को व्रतबन्ध, आचार्यकरण आदि नामों से भी जाना जाता है। इस संस्कार में धारण किये जाने वाले सूत्र को यज्ञसूत्र, उपवीत अथवा लोकभाषा में ‘जनेऊ’ शब्द से जाना जाता है। मुख्यतः वेदाध्ययन के लिए बालक को आचार्य के समीप ले जाने के उद्देश्य से किये जाने वाले संस्कार को ‘उपनयन’ संस्कार कहा जाता है, इसमें वेदमाता गायत्री की उपासनापूर्वक वेदारम्भ की विधि बतलायी जाती है, तथा उसमें पूर्णता-प्राप्ति के लिए कतिपय कठोर नियमों का पालन करना होता है, इन्हीं कठोर व्रतों, नियमों में बँधने के कारण ही इसका दूसरा नाम ‘व्रतबन्ध’ कहा जाता है, सायं प्रातः यज्ञीय समिधाओं के द्वारा अग्नि की परिचर्या से यज्ञ सम्पन्न करने के कारण दूसरा नाम यज्ञोपवीत भी सार्थक होता है।
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