Shri Shiv Sahastranam Sangrah (श्रीशिवसहस्रनामसङ्ग्रहः)
₹85.00
Author | Shree Madhu Sudhanand Giri |
Publisher | Dakshinamurty Math Prakashan |
Language | Sanskrit |
Edition | - |
ISBN | - |
Pages | 386 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | dmm0046 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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श्रीशिवसहस्रनामसङ्ग्रहः (Shri Shiv Sahastranam Sangrah) सनातन धर्म वैदिक परम्परा और लौकिक परम्परा इन दो धाराओं का संगम है। वैदिक की तरह लौकिक अर्थात् कुलपरम्परा भी प्रमाणरूप से स्वीकार्य है। ग्रन्थों पर आरूढ होने से वैदिक परम्परा लोगों पर निर्भर नहीं जबकि ग्रंथों पर आरूढ न होने से लौकिक परंपरा कुलधर्म के रूप में मिलती है अतः विषम परिस्थितियों में नष्ट भी हो जाती है। युद्ध के नुकसानों में अर्जुन ने शाश्वत कुल-धर्मों के नाश को प्रमुखता से गिना था। महाराजा मनु ने वेद व स्मृति के साथ सदाचार को भी धर्म का लक्षण कहा है। वेद से साक्षात् विरुद्ध होने पर कुलधर्मों की प्रमाणता कट जाती है क्योंकि मनु का निर्देश है ‘धर्मे प्रमीयमाणे तु प्रमाणं परमं श्रुतिः’ कि धर्म के बारे में अन्तिम, निरपेक्ष, निर्णायक प्रमाण वेद ही है किन्तु साक्षात् विरोध न हो तो सदाचार भी स्वीकृत प्रमाण है ही।
वेद में इन्द्र, रुद्र, मित्र, वरुण, आदित्य आदि सभी देवताओं की जगह-जगह परमेश्वररूप से स्तुति की गयी है। परलोक में विष्णु, शंकर व शक्ति को ही तत्तत् सम्प्रदाय में परमात्मरूप माना गया है। पुराण श्रुति व लोक दोनों का समन्वय बनाते हैं अतः अधिकतर पुराणों की रचना इन्हीं देवताओं को परम बताते हुए की गयी है। प्रसिद्ध है कि स्तुति सुनकर सभी प्रसन्न हो जाते हैं अतः शिवादि के स्तोत्रों के पाठ से इनकी प्रसन्नता भी स्वाभाविक है। वेद के रुद्राध्याय में भगवान् शंकर की अनेक रूपों में जैसी स्तुति मिलती है वैसी अन्य किसी देवता की नहीं । पुराणों में अनेक जगह शिव के शत, सहस्त्र आदि नाम उपलब्ध हैं। विस्तृत होने से सहस्रनाम सर्वाधिक विशेषताओं का उल्लेख कर देते हैं। यथासम्भव सब शिवसहस्रनामों का एक जगह संग्रह होने से शिवभक्तों को पाठ, अर्चना आदि में सुविधा होगी यह मानकर स्वामी मधुसूदनानन्द गिरि ने पुराणों से छह, महाभारत और शिवरहस्य से दो-दो, यों दस सहस्त्रनाम एकत्र कर उपस्थित किये हैं।
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