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Shri Vidyarnava Tantram Set of 5 Vols. (श्रीविद्यार्णवतन्त्रम् 5 भागो में)

5,960.00

Author Kapildev Narayan
Publisher Chaukhamba Surbharti Prakashan
Language Sanskrit & Hindi
Edition 2023
ISBN 978-9380326467
Pages 2209
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0893
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Description

श्रीविद्यार्णवतन्त्रम् 5 भागो में (Shri Vidyarnava Tantram Set of 5 Vols.) ‘श्रीविद्या’ शब्द ओत्रिपुरसुन्दरी के मन्त्र एवं उसके अधिष्ठात्री देवता-इन दोनों का बोधक है। सामान्यतया ‘श्री’ शब्द ‘लक्ष्मी’ अर्थ में प्रसिद्ध है; परन्तु हारितायन संहिता, ब्रह्माण्डपुराण उत्तरखण्ड आदि पुराणेतिहासों में वर्णित आख्यायिकाओं के अनुसार ‘ओ’ शब्द का मुख्य अर्थ ‘महात्रिपुरसुन्दरी’ ही है। श्री महालक्ष्यों ने महात्रिपुरसुन्दरी की चिरकाल पर्यन्त आराधना कर जो अनक वरदान प्राप्त किये हैं, उनमें एक वरदान ‘श्री’ की आख्या से लोक में ख्याति प्राप्त करने का भी है। अस्तु, ‘श्री’ शब्द का ‘महालक्ष्मी’ अर्थ तो गौण ही है; मुख्य अर्थ है-‘श्री’ अर्थात् महात्रिपुरसुन्दरी की प्रतिपादिका विद्या-मन्त्र श्रीविद्या’। वाच्य एव वाचक का अभेद मानकर इस मन्त्र को अधिष्ठात्री देवता भी ‘श्रीविद्या’ ही सिद्ध होती है। इस श्रीविद्या के उपासकों को लौकिक फल तो प्राप्त होते ही है; आत्मज्ञानी को प्राप्त होने वाला शोकोनीर्णतारूप फल भी श्रीविद्यापासकों को निश्चित रूप से प्राप्त होता है; साथ ही यही फल ब्रह्मविद्या से भी प्राप्त होता है, अतः फलैक्य हाने के कारण श्रीविद्या हो ब्रह्मविद्या है- यह निर्विवाद सत्य प्रतिष्ठापित होता है।

‘श्रीविद्या’ का साङ्गोपाङ्ग विवेचन करने वाला सर्वप्रामाणिक महनीय ग्रन्थ ‘श्रीविद्यार्णवतन्त्रम्’ न केवल श्री विद्याः अपितु दश महाविद्याओं के विशद् विवेचन के साथ साथ शैव, शाक्त, गाणपत्य, वैष्णव, सौर आदि सभी मन्त्रों एवं उनके तत्तद् यन्त्रों से पाठक को साक्षात्कार कराने वाला एक बृहत्काय ग्रन्थ है। स्वामी विद्यारण्ययति द्वारा छत्तीस श्वासां में गुम्फित यह ग्रन्थरत्न पूर्वार्द्ध एवं उत्तरार्द्ध रूप दो खण्डों में समुपलब्ध है। अंग-उपांगसहित श्रीविद्या के सविधि विवेचन के गाथ-साथ अन्य देवी-देवताओं के भी मन्त्र यन्त्रों का समग्र रूप से विवचन, उनके उपासना की विधि एव उपासना के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले फलों को भी स्पष्टतया अभिव्यक्त करना इस ग्रन्थ की सर्वातिशायी विशेषता है। अन्य ग्रन्थों में जहाँ किसी भी उपास्य देवता के एक, दो चार अथवा कतिपय प्रमुख मन्त्र यन्त्रों का ही विवेचन उपलब्ध होता है; वहीं इस ग्रन्य में विवेच्य समस्त देवी-देवताओं के प्रसिद्ध अप्रसिद्ध सभी मन्त्र-यन्त्रों को उनकी विधियों सहित स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया गया है: फलस्वरूप सम्बद्ध देवता के किसी भी मन्त्र-यन्त्र अथवा उसकी विधि को जानने के लिये साधक का किसी अन्य ग्रन्थ का अवलम्बू ग्रहण करने की लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं रह जाती। संक्षेप में कहा जा सकता है कि श्रीविद्यारण्ययति प्रणीत ‘श्रीविद्यार्णवतन्त्रम् एकमात्र ऐसा ग्रन्थ है, जां साधक की समस्त कामनाओं की पूर्ति करने में सर्वतोभवन समर्थ है।

अस्नु, यह ग्रन्थ अद्यावधि अपने मूल स्वरूप में ही, बिना किसी भाषा टीका के उपलब्ध था, जिससे जिज्ञासु साधकों को आराधना में पग-पग पर दुरूह कठिनाइयों का अनुभव होता था एवं ग्रन्थ के तात्पर्य से अवगत न हो पाने के कारण वे बार-बार विषयग्रस्त हो जाते थे। इसी को हदयङ्गम कर तन्त्रग्रन्थों के ख्यातिनाम भाषा भाष्यकार श्री कपिलदेव नारायण ने इस विशालकाय ग्रन्थ को भाषा टीका से अलकृत कर सर्वनहद्य बनाने का साहसिक प्रयास किया है। मतंजनमुलभ इस हिन्दी भाष्य द्वारा श्री नारायण ने कृटाक्षर में निबद्ध मन्त्र पत्रों को भी स्पष्ट करके साधकों का महनीय उपकार किया है।

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