Abhigyan Shakuntalam (अभिज्ञानशाकुंतलम)
₹319.00
Author | Dr. Sudhakar Malviya |
Publisher | Chaukhambha Krishnadas Academy |
Language | Hindi & Sanskrit |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-81-218-0250-4 |
Pages | 725 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 4 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSSO0634 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अभिज्ञानशाकुंतलम (Abhigyan Shakuntalam) नाट्यशास्त्र में उक्त भारतीय परम्परा के अनुसार नाटक की उत्पत्ति त्रेतायुग में ब्रह्मा के द्वारा की गई थी। भरत के अनुसार देवताओं की प्रार्थना पर मनो- विनोदार्थ ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीति, यजुर्वेद से अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर ‘नाट्य-वेद’ रूप पश्चम वेद की रचना की। ब्रह्मा ने अभिनय-संकेत भी भरतमुनि को प्रदान किए। नटराज भगवान् शङ्कर ने ताण्डव और जगदम्बा पार्वती ने लास्य नृत्य से नाट्य को अनुगृहीत किया और भारत-भू पर इन्द्रध्वज महोत्सव पर नाट्य का सर्वप्रथम अभिनय हुआ। इस तरह भारतीय परम्परा नाटकोत्पत्ति को देवी परम्परा मानती है।
नाट्य में संवाद और अभिनय का ही प्राधान्य होता है। भारत के अत्यन्त प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद में संवाद के स्थल हैं, जिन्हें संस्कृत नाटकों का मूल कहा जा सकता है। इन संवादों में यमन्यमी संवाद’, पुरुरवा-उर्वशी संवाद’, सरमा-पणि संवाद, इन्द्र-इन्द्राणी व वृषाकपि संवाद’, इन्द्र-मरुत् संवाद’, विश्वामित्र-नदी संवाद तथा अगस्त्य एवं उनकी पत्नी लोपामुद्रा का संवाद प्रमुख है। इस प्रकार ऋग्वेद में लगभग पन्द्रह ऐसे सूक्त हैं, जिनमें दो या अधिक वक्ताओं के बीच संभाषण प्रस्तुत किया गया है। संवाद ही नाट्यशास्त्र का प्राथमिक रूप है और बाद में उसको अभिनय का पुठ दिया गया है। (i) मैक्समूलर का मत है कि कथित संवाद सूक्त इन्द्र, मरुत तथा अन्य देवताओं की स्तुति में उनके अनुयायियों द्वारा यज्ञ के समय गाये जाते थे। (ii) सिलवाँ लेवी का कथन है कि सामवेद काल में गान-कला अपने विकास की चरम सीमा पर थी और ऋग्वेद में सुन्दर परिधान पहनकर स्त्रियों द्वारा अपने प्रेमियों को आकृष्ट करने का उल्लेख भी है। के अवसर पर नाट्याभिनय अवश्य होता होगा।”” अतः उनका मत है कि यज्ञादि (iii) जर्मन विद्वान् डा० हर्टल ने इन सूक्तों को गेय मानकर यह निरूपित किया कि इन गेय सूक्तों को एक से अधिक व्यक्ति मिलकर गाते थे। इस प्रकार वक्ताओं की विभिन्नता हो जाती थी, जिसने नाट्याभिनय को प्ररित किया। (iv) प्रो० वान् श्रोडर ने इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए बतलाया कि इन संवाद सूक्तों के गान के साथ नृत्य भी होगा क्योंकि मानव विज्ञान के अनुसार संगीत और नृत्य का अभिन्न सम्बन्ध होता है। गेय और अभिनय दोनों तत्त्व यहाँ मिल जाते हैं जो नाट्य का बीज है। (v) डा० विडिश, ओल्डेनबर्ग एवं पिशेल का अनुमान है कि ये सूक्त पहले गद्य-पद्यात्मक थे। ऐतरेय ब्राह्मण का शुनःशेप का आख्यान और शतपथ ब्राह्मण का पुरुरवा-उर्वशी- आख्यान इस प्रकार के अंश के प्रमाण हैं। अतः इन्हीं से नाट्य का उद्भब हुबा है। (vi) डा० ए० बी० कीथ इन दोनों मतों का खण्डन करते हुए कहते हैं कि ऋग्वेद के इन सूक्तों का न तो गायन होता था और न अभिनय ही, क्योंकि गायन और अभिनय तो क्रमशः साम और यजुः के तत्त्व हैं, जिनमें संवाद सूक्तों का सर्वथा अभाव है। इनका मात्र ‘शंसन’ ही होता था।
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