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Jain Dharma Darshan Me Jal Sarankshan Ki Avdharna (जैनधर्म दर्शन में जल संरक्षण की अवधारणा)

280.00

Author Shri Amrit Muni Ji
Publisher New Bharatiya Book Corporation
Language Hindi
Edition 1st edition, 2022
ISBN 978-81-8315-512-0
Pages 224
Cover Hard Cover
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code NBBC0065
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Description

जैनधर्म दर्शन में जल संरक्षण की अवधारणा (Jain Dharma Darshan Me Jal Sarankshan Ki Avdharna) प्रस्तुत शोध प्रबन्ध जैनधर्म दर्शन में जल संरक्षण की अवधारणा पर केन्द्रित है। अतः इन्हीं को केन्द्र बिन्दु बनाकर प्रकाश डाला जायेगा। आगम केवल ग्रन्थ मात्र नहीं है, साक्षात्कार किये गये सत्य के पुंज हैं। इसमें ‘सत्यं शिवं सुन्दर’ की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है। आचार की दृष्टि से आगमों में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, स्वाध्याय, समभाव, भूतदया और प्राणिमात्र की एकता वर्णित है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध को सात अध्यायों में विभक्त कर जैन धर्म दर्शन में जल संरक्षण की अवधारणा और जल के ऊपर समग्रता से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। चूंकि जैन दर्शन के मूल में अहिंसा है इसलिए अहिंसा को समग्रता से समझना बहुत आवश्यक हैं। जैन धर्म का मूल आगम है इसलिए आगमों की विषय वस्तु का प्रथम अध्याय में विवेचन किया गया है। इस अध्याय में आगमों का परिचय देते हुए उनके स्वरूप और विषय वस्तु का विवेचन किया गया है।

द्वितीय अध्याय में जैन दर्शन सम्मत षड्जीव निकायों का विवेचन किया गया है। जीव निकायों का पर्यावरण संरक्षण में क्या योगदान है इस पर विचार किया गया है। प्रकृति मानव की चिरः सहचरी है और मानव सभ्यता का विकास प्रकृति की गोद में हुआ है। इन सब तथ्यों का विवेचन इस अध्याय में किया गया है।

तृतीय अध्याय में जैन धर्म सम्मत अहिंसा का विवेचन किया गया है। अहिंसा के विभिन्न रूपों का विवेचन किया गया है। अहिंसा केवल मानव मात्र के लिए ही नहीं बल्कि सभी जीव-जन्तुओं को अपने समान समझना अहिंसा है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना का विकास अहिंसा का मूल मंत्र हैं।

चतुर्थ अध्याय में जल संरक्षण और जल का जीवन में महत्व दर्शाया गया है। जैत धुर्म में जल को जीव माना गया है। ऐसे जीवों को जलकायिक जीव कहा जाता है। जल के सहारे रहने वाले जीव तो बहुत से हैं जो जल में रहते हैं और अपना भरण-पोषण जल के माध्यम से करते हैं। जैन धर्म सर्वचेतनवादी है। इस अध्याय में जल की स्वच्छता, जल का संरक्षण, जल प्रदूषण, कीरण और निवारण जल संसाधन एवं जल नीति आदि पर विचार करके जल को जीवन के लिए आवश्यक माना गया है।

पांचवां अध्याय धार्मिक चेतना से सम्बन्धित है। इस अध्याय में वैदिक, जैन, बौद्ध, इसाई और इस्लाम धर्म में जल सम्बन्धी दृष्टिकोण को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। प्राचीनकाल में प्रकृति को शान्त करने के लिए बड़े- बड़े यज्ञों का विधान किया जाता था। प्रकृति की पूजा होती थी। जल को देवता मानकर अर्थात् आपो देवता कहकर जल की पूजा की गयी है। नदियां हमारे लिये पूजनीय हैं।

प्रस्तुत ग्रन्थ के छठे अध्याय में जल संरक्षण और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का वर्णन किया गया है। आज विश्व के सभी देश जल संरक्षण के प्रति चिन्तित हैं। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार गोष्ठियों में जल को संरक्षित और सुरक्षित करने के लिए नई-नई तकनीकों का प्रयोग करने पर विचार किया जा रहा है। जल को सुरक्षित रखने में जन जागरूकता बहुत ही आवश्यक है।

प्रस्तुत ग्रन्थ का सातवां अध्याय निष्कर्ष एवं जल की सामाजिक उपयोगिता से सम्बन्धित है। इसमें यह तथ्य उद्घाटित किया गया है कि जल मनुष्य के जीवन से लेकर मृत्युपर्यन्त उपयोगी रहता है। जल की सामाजिक उपयोगिता को दिखाते हुए जल संरक्षण के प्रति जन जागरूकता को आवश्यक माना गया है। जल की सुरक्षा कल की सुरक्षा है। यदि हम जल को संरक्षित और सुरक्षित रखते हैं तो हमारा भविष्य भी सुरक्षित रहेगा और हम सुखी रहेंगे।

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