Abhigyan Shakuntalam (अभिज्ञानशाकुन्तलम)
₹297.00
Author | Shiv Prasad Dwivedi |
Publisher | Bharatiya Vidya Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2023 |
ISBN | 978-81-957873-8-8 |
Pages | 462 |
Cover | Paper Back |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | TBVP0463 |
Other | Dispatched in 1-3 days |
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अभिज्ञानशाकुन्तलम (Abhigyan Shakuntalam) कृष्णसार मृग को रथ से पीछा करता हुआ राजा दुष्यन्त कुलपति कण्व के तपोवन में प्रवेश करता है। मृग को मारने के लिए उद्यत राजा वैखानसों की ‘राजन्। आश्रममृगोऽयं न हन्तव्यो न हन्तव्यः।’ इस वाणी को सुनकर धनुष से बाण उतार लेता है, और महर्षिकण्व के असन्निहित होने पर भी वैखानसों के अनुरोध पर कण्वाश्रम में प्रवेश करता है। वहाँ पर अपनी प्रियम्बदा तथा अनसूया नामक सखियों के साथ आश्रमवृक्षों के सेचन में व्यापृत शकुन्तला के अनिद्य सौन्दयं को देखकर मोहित हो जाता हैं। पुनः कण्व महर्षि के अभाव में यज्ञादि में बाधा करने वाले राक्षसों के निवारणार्थ आश्रम में रहने वाला राजा शकुन्तला के साथ गान्धर्व विधि से विवाहकर लेता है। अन्तर्वत्नी शकुन्तला को अभिज्ञान के रूप में अपनी नामांकित अंगूठी देकर अपनी राजधानी चला जाता है। इधर कण्व महर्षि प्रवास से लौटकर अपनी अग्निशाला में जाकर यह जान जाते हैं कि शकुन्तला के गर्भ में दुष्यन्त का पुत्र पल रहा है। इस समाचार से वे प्रसन्न ही होते है।
शकुन्तला को वे वाष्पगद्गद कण्ठ से उसके पतिगृह में अपने दो शिष्यों तथा गौतमी के साथ भेज देते हैं। किन्तु महर्षि दुर्वासा के शाप से अभिभूत राजा दुष्यन्त शकुन्तला को पहचानता ही नहीं है। वह शकुन्तला का प्रत्याख्यान कर देता है। पुनः मत्स्य जीविक के द्वारा उस अंगूठी को प्राप्तकर, राजा को शकुन्तला की याद आ जाती है। वह शकुन्तला के वियोग में उन्मत्त सा हो जाता है। अचानक वह मातलि के द्वारा इन्द्र का सन्देश प्राप्तकर स्वर्गलोक में जाकर दुर्जय नौमक दैत्यगण पर विजय प्राप्त कर के स्वर्ग से लौटते समय बीच में महर्षि कश्यप तथा अदिति की वन्दना करने के लिए रुकता है। वहीं पर उसे अपने पुत्र सर्वदमन और पत्नी शकुन्तला की प्राप्ति होती है। पुनः वह कश्यप तथा अदिति का आशीर्वाद प्राप्तकर पत्नी तथा पुत्र के साथ अपनी राजधानी लौट आता है। चतुरस्र प्रतिभा के धनी महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों में मानव जीवन के समस्त पक्षों को चित्रित किया। उनके काव्यों में जीवन और जगत् का मञ्जुल सामरस्य है। महाकवि के काव्यों में ऐहिक अभ्युदय तथा परम निःश्रेयस् दोनों का समन्वय है। लौकिक भोगों में भी अनासक्ति की उदात्त भावना स्थान-स्थान ‘पर परिलक्षित होती है।
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