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Abhinav Bhaisajya Kalpana Vigyan (अभिनव भैषज्यकल्पना विज्ञान)

272.00

Author Prof. Siddhanand Mishr
Publisher Chaukhamba Surbharati Prakashan
Language Hindi
Edition 2022
ISBN 978-9381484234
Pages 408
Cover Paper Back
Size 14 x 2 x 22 (l x w x h)
Weight
Item Code CSP0053
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Description

अभिनव भैषज्यकल्पना विज्ञान (Abhinav Bhaisajya Kalpana Vigyan) रसशास्त्र एवं भैषज्यकल्पना दोनों मिलाकर चिकित्सा के द्वितीयपाद (द्रव्य- भैषज्य) की पूर्ति होती है। यद्यपि रसशास्त्र पारदादि (खनिज द्रव्यों लोह रत्नों का) विशेष का शास्त्र है। इसके अन्तर्गत प्रायः 50 खनिज द्रव्यों का 6 वर्गों (रस-उपरस-साधारणरस-लोहवर्ग-रत्नवर्ग-उपरत्नवर्ग एवं क्षारवर्ग) में विभाजित कर वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत पारद को आधार मान कर तथा पारद को अधिक क्रियाशील बनाने के लिए और पारद को संस्कारित करने के लिए उपर्युक्त द्रव्यों को ग्रहण किया गया है। इन द्रव्यों का शोधन, मारण एवं सत्त्वपातन कर तथा रोगों पर इनका प्रयोग कर लोगों को रोग मुक्त करना है

किन्तु भैषज्य कल्पना के क्षेत्र में प्रायः वानस्पतिक एवं जान्तव द्रव्यों का संग्रहण कर स्वरस, कल्क, भृत, शीत एवं फाण्ट (पञ्चविध कषाय कल्पनाओं) द्वारा विभिन्न प्रति कल्पनाओं से औषधियों का निर्माण कर रोगियों पर उनका सफल प्रयोग से रोग मुक्त करना है। अर्थात् रसशास्त्र में प्रायः खनिज द्रव्यों का और भैषज्यकल्पना में वानस्पतिक एवं जान्तव द्रव्यों का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों (रसशास्त्र एवं भैषज्यकल्पना) में मुख्य अन्तर यही है। कल्पनाओं के क्षेत्र में भैषज्यकल्पना का स्थान अधिक विस्तृत है।

रसशास्त्र एवं भैषज्यकल्पना क्षेत्र में संस्कार का बड़ा ही महत्त्व है। चिकित्सार्थ एवं रोग-निर्हरणार्थ जितनी भी कल्पनाएँ हैं, चाहे वे रसशास्त्रात्मक (खनिज द्रव्यों की) हो या भैषज्यकल्पनात्मक (वानस्पतिक द्रव्यों) की हो, वे सभी कल्पनाकृत औषधियाँ संस्कारित ही हैं। चूँकि कच्ची (Raw drugs) औषधियाँ चाहें वे पारद-गन्धक-स्वर्ण-ताम्र-माणिक्य-हीरक-विष एवं दशमूलक-त्रिफला या अन्य वृक्षों की छाल या मूल आदि उसी अवस्था में खायी नहीं जा सकती हैं, अतः खाने के लिए उन औषधियों को संस्कारित करना ही होगा। अतः इन्हें चूर्ण-क्वाथ भस्मादि रूप में ग्रहण करना ही भैषज्यकल्पना हैं। यह संस्कार तोय-अग्नि-शौच-मन्थन-देश-काल-वासन-भाजनादि की विशेषता से अनेक प्रकार हैं। यथा-‘करणं पुनः स्वाभाविकानां द्रव्याणामभिसंस्कारः। संस्कारो हि नाम गुणान्तराधानमुच्यते, ते गुणास्तोयाग्निसन्निकर्षशौच मन्थन-देश-काल-वासन-भावनादिभिः कालप्रकर्षभाजनादिभिश्चाधीयन्ते’। – च०वि० 1/26

वानस्पतिक, जाङ्गम एवं पार्थिव द्रव्यों की अनेकविध कल्पनाओं के कारण द्रव्यों के स्वरूप परिवर्तित होकर नई कल्पना के रूप में औषधियों का प्रादुर्भाव हो जाता है साथ ही औषधों में विशेष प्रकार से गुणान्तराधान भी हो जाता है और उनके स्वाद (रस-गुण-वीर्य-विपाक) में भी सरसता और परिवर्तन आ जाता है एवं औषधियाँ चिरस्थायी हो जाती हैं तथा इनकी उपलब्धता सर्वदा बनी रहती है। इसके अतिरिक्त वैद्य के पास रोगी के आने पर औषधियों का निर्माण सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त क्वाथादि कल्पनाएँ तुरन्त बनानी चाहिए। इस प्रकार हम देखते हैं कि भैषज्यकल्पना का क्षेत्र अधिक व्यापक, प्रशस्त और अतिप्राचीन एवं वैज्ञानिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

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