Adbhuta Sagar Vol.2 (अद्भुतसागरः भाग-2)
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Author | Shivkant Jha |
Publisher | Chaukhamba Surbharati Prakashan |
Language | Sanskrit & Hindi |
Edition | 2018 |
ISBN | - |
Pages | 560 |
Cover | Hard Cover |
Size | 14 x 2 x 22 (l x w x h) |
Weight | |
Item Code | CSP0066 |
Other | Dispatched in 3 days |
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अद्भुतसागरः भाग-2 (Adbhuta Sagar Vol.2) समस्त भारतीय दर्शनशास्त्र एवं विज्ञान का एकमात्र लक्ष्य अपनी आत्मा का विकास कर उसे परमात्मा में मिला देना अथवा उसके समान बना लेना है।
विज्ञान एवं दर्शनादि शास्त्रों की भाँति ज्योतिष शास्त्र ने भी विज्ञान होने के कारण इस अखिल ब्रह्माण्ड के रहस्य को व्यक्त करने का सफल प्रयत्न किया है। इसीलिए कहा भी गया है-
अप्रत्यक्षाणि शास्त्राणि विवादस्तेषु केवलम् ।
प्रत्यक्षं ज्यौतिषं शास्त्रं चन्द्रार्को चित्तसाक्षिणौ ।।
भारतवर्ष में समुपलब्ध आकरग्रन्थों में प्राचीनतम वेदग्रन्थ ही हैं, यह सर्वविदित है। वेद को अपौरुषेय कहा जाता है अर्थात् किसी मनुष्य ने इसको नहीं बनाया है; किन्तु प्राणियों के हितसाधनार्थ सर्वशक्तिमान् परमात्मा ने त्रिकालज्ञ महर्षियों के द्वारा सृष्ट्यारम्भ-काल में ही इसे प्रकाशन कराया है। प्राणियों के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक-इन तीन प्रकार के दुःखों की निवृत्ति और धर्मार्थकाममोक्षस्वरूप पुरुषार्थचतुष्टय की प्राप्ति का सर्वोत्तम पथप्रदर्शक वेद ही है। मनु ने कहा भी है-
वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च ।।
यः कश्चित्कस्यचिद्धमों मनुना परिकीर्त्तितः ।
स सर्वोऽभिहितो वेदे सर्वज्ञानमयो हि सः ।। (अ. २,६-७)
अर्थात् सम्पूर्ण वेद, वेद के जानने वालों (मनु आदि) की स्मृति और उनका (१३ प्रकार का) शील, धार्मिकों का आचार तथा (जिस विषय को स्मृतियों में विकल्प से लिखा है, उसमें) अपने मन की प्रसन्नता- ये धर्म के मूल हैं। मनुजी सर्वज्ञ हैं, इसलिए जो कुछ जिसका धर्म वेद में कहा गया है, वही उन्होंने कहा है। श्लोकवार्त्तिक में कहा गया है –
प्रत्यक्षेणानुमीत्या वा यस्तूपायेन बुध्यते ।
एवं विदन्ति वेदेन तस्माद्वेदस्य वेदता ।।
ज्ञान-विज्ञानादि समस्त भारतीय विद्याओं का आधार वेद ही है। नीतिशास्त्र में कहा है-
आन्विक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिश्च शाश्वती ।
विद्याश्चतस्त्र एवैता लोकसंस्थितिहेतवः ॥
अङ्गानि वेदाश्चत्वारः मीमांसान्यायविस्तरः ।
धर्मशास्त्रं पुराणं च त्रयीदं सर्वमुच्यते ।।
वेदपुरुष के षडङ्गों (व्याकरण, ज्योतिष, निरुक्त, कल्प, शिक्षा और छन्द) में ज्योतिष को नेत्राङ्ग माना गया है। नारद ने कहा है-
वेदस्य निर्मलं चक्षुज्योंतिः शास्त्रमकल्मषम् ।
विनैतदखिलं कर्म श्रौतं स्मार्त न सिद्धयति ।।
भास्कराचार्य ने लिखा है-
वेदास्तावद्यज्ञकर्मप्रवृत्ताः यज्ञाः प्रोक्तास्ते तु कालाश्रयेण ।
शास्त्रादस्मात् कालबोधो यतः स्याद्वेदाङ्गत्वं ज्योतिषस्योक्तमस्मात् ।।
नेत्राङ्ग होने के कारण ज्योतिष का स्थान सवर्वोपरि माना गया है। लगध का कथन है-
यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्वद्वेदाङ्गशास्त्राणां ज्योतिषं मूर्ध्नि संस्थितम् ।। (वेदाङ्गज्योतिष).
भास्कराचार्य ने कहा है-
वेदचक्षुः किलेदं स्मृतं ज्यौतिषं मुख्यता चाङ्गमध्येऽस्य तेनोच्यते ।
संयुतोऽपीतरैः कर्णनासादिभि श्चक्षुषाङ्गेन हीनो न किश्चित्करः ।। (सि. शि. मणि, मध्यमाधिकार)
यद्यपि यह सामान्य सिद्धान्त है कि सभी कोई अपने वर्ग और अपने विषय का पक्षपाती होता है, परन्तु दिग्देशकालव्यञ्जकत्वेन यज्ञ, तप, दान, व्रतोपवास- पर्वादि सकल कर्मों का आदिबीज होने के कारण अन्य शास्त्रापेक्षया ज्यौतिष शास्त्र का अध्ययन अत्यावश्यक है। वेद वेदाङ्ग उपनिषद्-दर्शन-पुराणेतिहासादि का एकमात्र सिद्धान्त है कि सभी मनुष्य यज्ञ-तप-दान-व्रतादि की साधना द्वारा ईश्वर की प्राप्ति करें। परश्च उचित समय पर किया हुआ कर्म ही सफल होता है, अकाल में किया हुआ कर्म निष्फल एवं दुर्गति को देने वाला होता है। अतएव कालात्मक ज्यौतिष शास्त्र का पग-पग पर प्रयोजन स्पष्टतया सिद्ध है। इसके ज्ञान के विना वैदिक या लौकिक कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता है।
समस्त वेद यज्ञकर्मात्मक हैं। संस्कारों और यज्ञों की समस्त क्रियायें निश्चित मुहूर्तों पर निश्चित कालावधि में सम्पन्न करना आवश्यक हैं। उनके ज्ञान हेतु ज्योतिष शास्त्रीय पञ्चाङ्ग ही एकमात्र आधार है। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के सम्पादन में तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण – इन पाँच अङ्गों को ध्यान में रक्खा जाता है। पञ्चाङ्ग द्वारा संस्कारों, यज्ञानुष्ठानों एवं यात्रादि कार्यों से सम्बन्धित मुहूर्तों का ज्ञान होता है। इसलिए प्रत्येक वेद से सम्बद्ध ज्यौतिषों का अध्ययन वैदिक काल से ही प्रचलित रहा है और अति प्राचीन काल से ही निरन्तर ज्योतिष शास्त्र का उत्तरोत्तर विकास होता आ रहा है।
अनेक शास्त्रों की भाँति ज्योतिष में सन्दिग्धता या अप्रत्यक्षता नहीं है; अपितु यह सर्वत्र सयुक्तिक एवं प्रत्यक्ष है। काश्यप के मतानुसार इस ज्योतिष शास्त्र के अट्ठारह प्रवर्तकाचार्य हैं-
सूर्यः पितामहो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः ।
कश्यपो नारदो गगों मरीचिर्मनुरङ्गिराः ।।
लोमशः पौलिशश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः ।
शौनकोऽष्टादशश्चैते ज्योतिः शास्त्रप्रवर्तकाः ।।
यहाँ पर पुलस्त्य और पौलिशभेद से पराशर ने उन्नीस ज्योतिःशास्त्र-प्रवर्तक आचार्य बताया है। वे कहते हैं-
विश्वसृड्नारदो व्यासो वसिष्ठोऽत्रिः पराशरः ।
लोमशो यवनः सूर्यश्यवनः कश्यपो भृगुः ।।
पुलस्त्यो मनुराचार्यः पौलिशः शौनकोऽङ्गिराः ।
गगों मरीचिरित्येते ज्ञेया ज्योतिः प्रवर्तकाः ।।
नारद ने अपनी नारदसंहिता में सूर्य को छोड़कर सत्रह प्रवर्तक आचार्य कहा है; परन्तु पञ्चवर्ष युगवर्णनयुक्त मूल वेदाङ्ग ज्योतिष के निर्माता महात्मा लगध की चर्चा ज्योतिःशास्त्रप्रवर्तक के रूप में संहिताकारों ने नहीं की है।
इन ज्योतिःशास्त्र के प्रवर्तक आचार्यों के सिद्धान्तों एवं संहिता के ग्रन्थों की अनुपलब्धता के कारण इनके समयादि का निराकरण अतीव कठिन है।
वेदों में प्रसङ्गानुसार ज्योतिषविषयक चर्चायें उपलब्ध हैं; स्वतन्त्र अध्याय या प्रकरण के रूप में नहीं। परन्तु आज के विकसित एवं विशाल ज्योतिर्विज्ञान का आधार वेद में सन्निहित है। अति प्राचीन काल में ज्येतिष शास्त्र के विषयों का विभाजन गणित-फलित की दृष्टि से नहीं किया गया था। बाद में आचार्य वराहमिहिर ने ज्योतिष शास्त्र को सिद्धान्त, संहिता और होरा- इन तीन स्कन्धों (विभागों) में विभक्त किया ।
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